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________________ जैन योग पद्धति द्वारा सिद्धत्व की साधना इ सब करता प्रति उसके च यमों का के रूप में पके मन में लन करूँ। पर्यावलोकन | जैसा यथाप्रसंग निरूपित किया गया है, किसी जीव द्वारा विश्व के समस्त पुद्गलों का एक बार किसी न किसी रूप में ग्रहण और विसर्जन एक 'पद्गल-परावर्त' कहा जाता है। यह क्रम अनादिकाल से चलता आ रहा है। यों सामान्यत: जीव इस प्रकार अनंत पुद्गल-परावर्तों में से गुजरता रहा है। यही दीर्घ संसार की शृंखला का चक्र है। इस चक्र में भ्रमण करते हुए जीवों में कई भव्य या योग्य जीव भी होते हैं, जिनका कषाय मंद होता जाता है। मोहात्मक कर्म-प्रकृति की शक्ति घटती जाती है। जीव का शुद्ध स्वरूप यत्किंचित् होता जाता है। ऐसी स्थिति आने पर जीव की संसार में भ्रमण करने की स्थिति सीमित हो जाती है। जब संसार के समस्त पुद्गलों को केवल एक बार किसी न किसी रूप में प्रयुक्त करने मात्र की अवधि अवशिष्ट रह जाती है, उसे 'चरम पुद्गलावर्त' या 'चरमावर्त' कहा जाता है। अर्थात् योगबीज संशुद्ध होने की इस प्रसंग में जो चर्चा आई है, उसका अभिप्राय यह है कि साधक तब अत्यंत उपादेयग्रहण करने योग्य पदार्थों को ग्रहण करने में निपुण बुद्धि द्वारा आहार आदि संज्ञाओं का निरोध कर देता है तथा फल की कामना को त्याग देता है। यहाँ संज्ञा शब्द का प्रयोग एक विशेष अर्थ में है। छोटे-बड़े जीवों में व्यक्त-अव्यक्त रूप में जो सहज प्रवृत्तियाँ विद्यमान होती हैं, उन्हें संज्ञाएँ कहा जाता है। जैन शास्त्रों में निम्नांकित दश संज्ञाएं मानी गई हैं १. आहार-संज्ञा, २. भय-संज्ञा, ३. मैथुन-संज्ञा, ४. परिग्रह-संज्ञा, ५. क्रोध-संज्ञा, ६. मान-संज्ञा, ७. माया-संज्ञा, ८. लोभ-संज्ञा, ९. ओघ-संज्ञा तथा १०. लोक-संज्ञा। प्रत्येक प्राणी में किसी न किसी रूप में ये भाव रहते हैं। आहार, भय आदि सब में होता हैं, किन्तु बाह्य दृष्टया उनकी प्रतीति नहीं होती। जैसे एकेद्रिय जीव, प्राणवध से बहुत भयभीत होते हैं, किंत अपने भय को व्यक्त करने का उन्हें इंद्रियात्मक साधन प्राप्त नहीं है, इसलिए वे उन्हें प्रगट करने में समर्थ नहीं होते हैं। यम' कहा कहा जाता इन पाँचों गोजों को योगबीज नसिक, उत्तम लावर्त साधक जब इन संज्ञाओं से ऊँचा उठ जाता है और अपने कर्तव्यों का पालन करता हुआ फलासक्ति से रहित हो जाता है, तब उसके मन में ऐसी पवित्रता व्याप्त होती है कि वह अरिहंतों के प्रति अपने चित्त में शुद्ध, उत्तम भाव रखता है, उनके प्रति उसके मन में श्रद्धा उदित होती है। भावयोगियों का महत्त्व आचार्य हरिभद्र इस संबंध में और स्पष्टीकरण करते हुए लिखते हैंजिनकी आत्मा योग भावापन्न होती है, अध्यात्म-योग में परिणत होती है, ऐसे आचार्यों, 375
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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