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SAHDS
SANLESSORTHEASES
णमो सिध्दाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलना
धर्म-कार्य में उसे खेद तथा परिश्रांति का अनुभव नहीं होता। वह अखिन्न होता हुआ यह सब करता है। उसका खेद नामक आशय-दोष मिट जाता है, जो देव-कार्य आदि नहीं करते, उनके प्रति उसके मन में द्वेष-भाव नहीं होता।
समीक्षा
महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र में अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-इन पाँच यमों का प्रतिपादन किया है।
आचार्य हरिभद्र ने प्रत्येक यम के इच्छा-यम, प्रवृत्ति-यम, स्थिर-यम और सिद्धि-यम के रूप में| चार भेद बतलाए हैं। जब साधक यमों को स्वीकार करने में उद्यत होता है तो पहले उसके मन में उन्हें अपनाने की इच्छा उत्पन्न होती है। वह सोचता है कि मैं अहिंसा आदि यमों का पालन करूँ। साधक की इस मानसिकता को ‘इच्छा-यम' कहा जाता है।
जब वह स्थिरता पूर्वक, अनवरत, अखंडित रूप में यमों का पालन करता है, उसे 'स्थिर-यम कहा जाता है। जब वह उन्हें सिद्ध कर लेता है, परिपूर्णतया प्राप्त कर लेता हैं, उसे 'सिद्धि-यम' कहा जाता
है।
प्रत्येक यम के ये चार भेद होते हैं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह- इन पाँचों यमों के कुल बीस भेद होते हैं। मित्रादृष्टि में ये सिद्ध हो जाते हैं। योगबीज
आचार्य हरिभद्र तत्पश्चात प्रतिपादन करते हैं कि मित्रादष्टि में विद्यमान साधक योग बीजों को स्वीकार करता है, जो मोक्ष प्राप्ति के अमोघ- कभी निष्फल नहीं होने वाले हेत हैं अर्थात योगबीज ऐसे कारण हैं, जिनसे साधक निश्चय ही मोक्ष तक पहुँचता है।
जिनेश्वरों या अरिहंतों के प्रति चित्त में उत्तम भाव रखना, उन्हें नमस्कार करना तथा मानसिक, वाचिक एवं कायिक शुद्धिपूर्वक विशेष रूप से उनके प्रति प्रणमनशील, भक्तिशील रहना, उत्तम योगबीज हैं । भव्यता परिपाक के परिणामस्वरूप, आत्मा की योग्यता के परिस्फुटन से चरम पुद्गलावर्त के समय में ही कुशल चित्त आदि योगबीज संशुद्ध होते हैं।'
१. योगदृष्टि समुच्चय, श्लोक-२१. २. योग-सूत्र, साधनपाद, सूत्र-३०. ३. योगदृष्टि समुच्चय, श्लोक-२२-२४.
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