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जैन-योग पद्धति द्वारा सिद्धत्व की साधना
कहा जाता आगे बढ़ते
है। यहाँ जिस प्रकार उसकी यात्रा किसी अपेक्षा से आंशिक रूप में बाधित होती है, उसी प्रकार मोक्ष की दिशा में योगी को अपने संचित कर्मों में से, जिन कर्मों का क्षय अवशिष्ट रहता है, उनका भोग परा कर लेने हेतु बीच में देव-जन्म आदि में से गुजरना होता है। यद्यपि यह उसके परम लक्ष्य की और गति में एक विघ्न है, किंतु यह निश्चित है कि उस साधक की यात्रा उस कर्म-भोग के बाद अपने लक्ष्य की ओर फिर आगे बढ़ती है तथा सिद्धत्व, मुक्तत्व रूप लक्ष्य प्राप्त हो जाता है।
रतमता की अनेक भेद
, लघुता, ना सकती,
भी उच्च,
रहते हैं। पता होती
ग्रंथकार
विमर्श
ग्रंथकार के अनुसार इन आठ योग-दृष्टियों की आराधना एक ऐसी यात्रा है, जो संसार से मोक्ष की ओर जाती है। यात्रा में अनेक विघ्न होते हैं। पथिक थक जाता है। कभी-कभी निरुत्साह एवं बलहीन हो जाता है, किंतु फिर वह आत्मबल का सहारा लेता हुआ आगे बढ़ता है, पहले की चार दष्टियों में ऐसी ही स्थिति रहती है। बाधाएं आती हैं। साधक फिर उत्साहित होता है। आत्मबल का सहारा लिये हुए इन चारों दृष्टियों को लांघ जाता है और पाँचवीं स्थिरा दृष्टि को प्राप्त कर लेता है। फिर वह गिरता नहीं। इस दृष्टि का स्थिरा नाम इसी सत्य का सूचक है। उसकी गति, सिद्ध-मार्ग की ओर बढ़ती रहती है।
यात्रा करने वाला दिन में चलता है, रात में विश्राम करता है। यद्यपि यह विधाम यात्रा में रुकावट तो है, किंतु इससे यात्रा का क्रम टूटता नहीं है। इसी प्रकार साधक की यात्रा तो चलती है, किंतु पूर्व-संचित कर्मों में जिस कर्म का भोग शेष रह जाता है, उसे पूर्ण करने हेतु उसका देव-योनि आदि में जन्म होता है। संचित कर्मों के विषयात्मक भोग को पूर्ण कर फिर वह मानव रूप में जन्म लेता है। साधना-पथ का अवलंबन कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होकर अपना लक्ष्य पूरा करता है।
एक यात्री जब यात्रा पर जाता है तो साथ में पाथेय लेता है, खाद्य आदि सामग्री लेता है, जो यात्रा में उसके उपयोग में आती है। इसी प्रकार आठ दृष्टियों के माध्यम से साधना की यात्रा पर यह सब पाथेय के तुल्य है, जो उसे आगे बढ़ने में बल देता है, परिश्रांत नहीं होने देता। अब आगे आठ दृष्टियों का विवेचन किया जा रहा है।
र्थ विघ्न
। अर्थात् । सकता
यरहित, -रहित तिशील
१. मित्रादृष्टि
समस्त जगत् के प्रति मैत्री-भाव के कारण यह मित्रादष्टि कही गई है। इसके प्राप्त हो जाने पर दर्शन- सत् श्रद्धामूलक बोध होता तो है, किंतु वह मंद होता है। साधक इस दृष्टि में योग के प्रथम भेद यम को, जो इच्छा आदि रूप में विभाजित है, प्राप्त कर लेता है। देव-कार्य, गुरु-कार्य तथा
करता
१. योगदृष्टि समुच्चय, श्लोक-१९, २०.
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