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णमो सिध्दाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन
वे आगे लिखते हैं कि सत् श्रद्धा या सम्यक् आस्था से संगत बोध या ज्ञान को दृष्टि कहा जाता है । वैसा होने पर असत् प्रवृत्ति का व्याघात अवरोध होता है तथा सत् प्रवृत्ति में कदम आगे बढ़ते | हैं।
आत्मा के शुद्ध स्वरूप को आच्छन्न करने वाले आवरणों के अपगत होते जाने की तरलमता की अपेक्षा से साधारणतया दृष्टि के आठ भेद माने गए हैं, किंतु सूक्ष्मता से देखने पर उसके अनेक भेद हो सकते हैं ।
अनुचिन्तन
जैसा पहले कहा गया है, कर्मावरणों की मंदता, तीव्रता, अधिकता, न्यूनता, सघनता, लघुता, | तरतमता आदि की अपेक्षा से दृष्टि के इतने भेद हो सकते हैं, जिनकी गणना नहीं की जा सकती, क्योंकि परिणामों की धारा क्षण प्रतिक्षण परिवर्तित होती रहती है। उनमें कभी निम्न, कभी उच्च, | कभी अधम, कभी उत्तम स्थितियाँ आती रहती हैं । कर्मों के आवरण तदनुसार आछन्न होते रहते हैं। निम्न परिणामों से कर्मों की आछन्नता तथा पवित्र परिणामों से कर्मों की उपशान्तता या क्षीणता होती रहती है।
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वह उपशान्तता या क्षीणता परिणामों के आधार पर अनेकानेक रूपों में होती रहती है, ग्रंथकार | ने उनको आठ भागों में विभक्त कर आठ दृष्टियों की परिकल्पना की है ।
सापाय- निरुपाय
मित्रा, तारा, बला एवं दीप्रा - ये प्रथम चार दृष्टियाँ सापाय कही जाती हैं । अपाय का अर्थ विघ्न या बाधा है अर्थात् ये लक्ष्य से दूर ले जाती हैं। इन दृष्टियों में प्रतिपात पतन संभावित है। अर्थात् | साधक उन्हें प्राप्त तो कर लेता है, किन्तु अजागरूकता या असावधानी के कारण वह गिर भी सकता | है । निश्चिन्त रूप में गिरे ही, ऐसी स्थिति नहीं हैं, किंतु गिरने की आशंका बनी रहती है ।
इसी तरह स्थिरा, कांता, प्रभा तथा परा- आगे की ये चार दृष्टियों निरपाय अपायरहित, विघ्न रहित हैं। उन्हें प्राप्त करने के बाद प्रतिपात या पतन की आशंका नहीं रहती। प्रतिपात रहित इन दृष्टियों के प्राप्त हो जाने पर योगी सिद्धत्व प्रतिरूप अपने लक्ष्य की दिशा में निरंतर गतिशील रहता है।
जिस प्रकार यात्रा पर गतिशील पथिक दिन में चलता है। कुछ स्थानों पर रुक कर विश्राम करता
१. योगदृष्टि समुच्चय, श्लोक १७, १८.
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