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________________ जैन-योग पद्धति द्वारा सिद्धत्व की साधना शेत किया। जो मनुष्य नहीं होता, किया है। ओघ-दृष्टि का विश्लेषण करने के पश्चात् उन्होंने योग-दृष्टि का वर्णन किया है। योग-दृष्टि जो पुरुष सत्य का साक्षात्कार करने की दिशा में उद्यत होता है, उसकी बोध-ज्योति विशदता या स्वच्छता के विकास की दृष्टि से आठ प्रकार की होती है। उदाहरणों द्वारा उसे इस प्रकार समझा जा सकता है- तणों की अग्नि, गोमय- कंडों की अग्नि, काष्ठ की अग्नि का प्रकाश, दीपक की ज्योति, रत्नों की ज्योति, तारों का प्रकाश, सूर्य की रश्मियों तथा चंद्र की किरणों की आभा जैसे भिन्न-भिन्न होती है, वे क्रमश: उत्तरोत्तर उत्कृष्ट होती हैं, उसी प्रकार आठ प्रकार की योग-दृष्टियाँ उद्योत की दृष्टि से उत्तरोत्तर उत्तम होती हैं। यहाँ उद्योत की आभा के उत्तरोत्तर उत्कर्ष के सन्दर्भ में चन्द्र का स्थान अन्तिम इसलिए माना गया है कि उसका प्रकाश सौम्यता, हृद्यता, शीतलता आदि की दृष्टि से सर्वोत्तम है। आठ योग-दष्टियाँ निम्नांकित हैं ॥ है। एक से रहित त नहीं हैं। देगी। जब पर होने में नेत्र-रोग विशदता, तमता की १. मित्रा, २. तारा, ३. बला, ४. दीप्रा, ५. स्थिरा, ६. कांता, ७. प्रभा तथा ८. परा।' इन आठ योग-दृष्टियों का जो सत्पुरुष अभ्यास करते हैं, यम, नियमादि योग के आठ अंग क्रमश: सिद्ध हो जाते हैं, खेद, उद्वेग आदि दोषों का परिहार हो जाता है तथा अद्वेष, जिज्ञासा आदि गुण प्राप्त हो जाते हैं। बहते हैं। आदि की समीक्षा ग्रंथकार ने यहाँ पातंजल-योग आदि की ओर संकेत करते हुए बताया है कि साधकों के लिए ये दृष्टियाँ उनके चिंतन को परिष्कृत करने में सहायक होगीं। इन दृष्टियों की आराधना से वे अभ्यासी जो पावन साध्य सिद्ध करना चाहते हैं, वह सिद्ध होगा, ऐसा कहने का तात्पर्य यह है कि ये दृष्टियाँ एक संप्रदाय के साथ बंधी हुई नहीं हैं। एक जैनाचार्य ने इनका आविष्करण किया है, इसलिए ये जैनों की हैं, जैन परंपरा तक सीमित हैं, ऐसा नहीं समझना चाहिए। सर्य की रश्मियाँ तो सभी को आलोक प्रदान करती हैं। वहाँ स्व-पर क भेद नहीं होता। उसी प्रकार बोध-ज्योति से समन्वित ये दृष्टियाँ सबके लिए लाभप्रद हैं। न्यत्र वैसा ों का जो तो उसके मोर संकेत १. योगदृष्टि समुच्चय, श्लोक-१५. २. योगदृष्टि समुच्चय, श्लोक-१३. ३. योगदृष्टि समुच्चय, श्लोक-१६. 371
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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