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णमो सिध्दाण पद: समीक्षात्मक परिशीलन
हरिभद्र सूरि ने दष्टि की उज्ज्वलता के आधार पर योग-साधना का एक विशिष्ट पथ प्रकाशित किया। ग्रंथकार ने दृष्टि के दो भेद बताए हैं। 'ओघ-दृष्टि' और 'योग-दृष्टि'।
ओघ-दृष्टि | ओघ का अर्थ प्रवाह है। जिस प्रकार प्रवाह में कोई वस्तु बहती रहती है, उसी प्रकार जो मनुष्य लोक-प्रवाह में बहते रहते हैं, धर्म या आध्यात्मिकता की ओर जिनका जरा भी झुकाव नहीं होता, केवल भौतिक जीवन ही उनका साध्य होता है, उनकी दृष्टि 'ओघ-दृष्टि' कही जाती है।
'ओघ-दृष्टि' का विश्लेषण करते हुए ग्रंथकार कहते हैं कि वह अनेक प्रकार की होती है। एक रात ऐसी है, जब आकाश में बादल छाए हुए हैं। दूसरी रात ऐसी है जिसमें आकाश बादलों से रहित हैं। एक दिन ऐसा है जहाँ आकाश में बादल हैं। दूसरा दिन ऐसा है जहाँ आकाश में बादल नहीं हैं। इनमें वस्तु को देखने में तरतमता रहती है। जहाँ बादल होंगे, वहाँ वस्तु स्पष्ट नहीं दिखाई देगी। जब बादल नहीं होंगे, तब वस्तु पहले की अपेक्षा स्पष्ट दिखाई देगी।
विषय को और स्पष्ट करते हुए लिखा गया है कि दर्शक के भेद से वस्तु के दृष्टिगोचर होने में भिन्नता रहती है। ग्रह-पीड़ित दर्शक, बाधा-रहित स्वस्थ दर्शक, बाल दर्शक, वयस्क दर्शक, नेत्र-रोग से ग्रस्त दर्शक, नेत्र-रोग रहित दर्शक इत्यादि के देखने में तरतमता, न्यूनाधिकता रहती है। विशदता, अविशदता, स्पष्टता, अस्पष्टता रहती है। इसी प्रकार ओघ-दष्टि युक्त व्यक्तियों में भी तरतमता की दृष्टि से भिन्नता रहती है। यह मिथ्या-दृष्टि पर आश्रित है।
पर्यवेक्षण
ग्रंथकार ने यहाँ समस्त लोगों को ध्यान रखकर विवेचन किया है, जो लोक-प्रवाह में बहते हैं। कर्म का दर्शन बहुत गहरा है। कर्मों के भेद, प्रकृति, उद्वर्तन, अपवर्तन, निकाचन, निधत्ति आदि की दृष्टि से शास्त्रों में बड़ा विशद विवेचन हुआ है।
जैन दर्शन में विविध अपेक्षाओं से जितना विशद, विस्तृत वैज्ञानिक विवेचन हुआ है, अन्यत्र वैसा दृष्टिगोचर नहीं होता। जैन साहित्य के अन्तर्गत षटखंडागम, धवला एवं कर्म-ग्रंथों में कर्मों का जो | विश्लेषण हुआ है, वह वास्तव में आश्चर्यजनक है।
कर्मों के प्रभाव से या उदय से प्राणियों की अनेक स्थितियाँ बनती हैं। सूक्ष्मता से देखें तो उसके अनेकानेक भेद होते हैं । इसी अपेक्षा से आचार्य हरिभद्र सूरि ने ओघ-दृष्टि की तरतमता की ओर संकेत
१. योगदृष्टि समुच्चय, श्लोक-१४.
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