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________________ जैन-योग पद्धति द्वारा सिद्धत्व की साधना क श्रेणी प्राप्त [प्त हो जाती है वह बहुत ही सूक्ष्म और मार्मिक है। पहला 'योग' शब्द मानसिक, वाचिक और कायिक कर्म के लिए है। को उज्ज्वल, उसके बाद आया हुआ योग शब्द उन योगों से रहित होने के अर्थ में है। यहाँ योग शब्द संबंध या जुड़ाव का सूचक है। अर्थात् मानसिक, वाचिक और कायिक कर्मों के साथ संबंध न रखना अयोग है। यह आत्मा की बहुत ऊँची अवस्था है। यह तब सिद्ध होती है, जब समस्त घाति-अघाति कर्मों का नाश हो जाता है। यह योग या साधना की उत्कृष्टतम स्थिति है। ऐसा होने पर फिर कुछ करना बाकी नहीं रह जाता। लक्ष्य प्राप्त हो जाता है। मोक्ष या सिद्धत्व ही जीव का परम लक्ष्य है। उसका प्राप्त हो जाना योग की परम सिद्धि है। मंजस्य करने उदीरणा को मानसिक, ' प्राप्त नहीं --प्रदेशों को बहुत समय माहिए। 'अपेक्षाकृत जाता है। स्वरूप है। दृष्टि और उसके भेद ___ जीवन में 'दृष्टि' या 'दर्शन' का स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण है। ये दोनों शब्द संस्कृत में 'दृश्' धातु से बने हैं। दश धातु प्रेक्षण के अर्थ में है। प्रेक्षण शब्द के प्रारंभ में 'प्र' उपसर्ग लगा हुआ है। प्रकर्षण ईक्षणम् प्रेक्षणम्'- प्रकृष्ट या उत्कृष्ट रूप में देखना प्रेक्षण है। देखते तो सभी हैं, किंतु देखने वालों में योग्यता की दृष्टि से भेद होता है। कुछ लोग बहुत ही स्थूल दृष्टि से देखते हैं। उनका देखना गहरा नहीं होता। वे पदार्थ के केवल बाहरी रूप को देखते हैं, किंतु जिनकी दृष्टि तीक्ष्ण या पैनी होती है, वे वस्तु के स्वरूप का सूक्ष्म-दर्शन करते हैं। प्रेक्षण वैसे ही सूक्ष्म-दृष्टि का सूचक है। मनुष्य की दृष्टि जैसी होगी, उसी के अनुरूप भाव होंगे। जैसे मार्ग में पड़ी हुई स्वर्ण-राशि पर एक द्रव्य-लोभी की दृष्टि पड़ती है तो वह उसे अपने अधिकार में ले लेने को तत्पर होता है। एक त्यागी साधक की दृष्टि उस पर विशेष रूप से जाती ही नहीं। उस ओर वह उपेक्षित रहता है। एक संतोषी सद् गृहस्थ उसे देखता है, तब उसके मन में आता है, बेचारे किसी मनुष्य का स्वर्ण गिर पड़ा, यदि उसे पहुँचाया जा सके तो कितना अच्छा हो। | एक ही पदार्थ पर भिन्न-भिन्न व्यक्तियों की दृष्टियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं। विकार-युक्त दृष्टि अशुभ या पाप-पूर्ण कार्यों में जाती है। निर्विकार दृष्टि शुभात्मक या पुण्यात्मक कार्यों में जाती है। वही जब और निर्मलता पा लेती है, तब वह शुभ को भी पार कर जाती है और शुद्धत्व की भूमिका पा लेती है। पतन और उत्थान दृष्टि की निकृष्टता और उत्कृष्टता पर टिके हुए हैं। यही कारण है कि आचार्य का मन, वह आत्मा रेक्त और ख किया १. तत्त्वार्थ-सूत्र, अध्ययन-६, सूत्र-१. 369
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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