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________________ णमो सिद्धाणं पद समीक्षात्मक परिशीलन जाता है, फिर वह आत्म-पराक्रम द्वारा ऊपर चढ़ने का प्रयत्न करता है । जब तक वह क्षपक श्रेणी प्राप्त नहीं कर सकता, तब तक उसका चढ़ने-गिरने का क्रम चालू रहता है । जब क्षपक श्रेणी प्राप्त हो जाती है, तभी वह आगे बढ़ता है । क्षपक श्रेणी प्राप्त करने के लिए आत्मा को बड़ा बल लगाना पड़ता है, आत्मा को उज्ज्वल | उज्ज्वलतर बनाना होता है । वह धर्म-सन्यास योग है । योग- सन्यास तेरहवें गुणस्थान में सिद्ध होता है। केवली वेदनीय आदि कर्मों की आयुष्य कर्म की तुलना में अधिकता देखकर उनका सामंजस्य करने | हेतु कर्मों की उदीरणा करते हैं, जिससे समुद्घात द्वारा वे क्षीण किये जा सकें, उस उदीरणा को आयोज्यकरण कहा जाता है। उससे योग सन्यास सिद्ध होता है। - तेरहवें गुणस्थान में वीतराग भाव, सर्वज्ञ भाव प्राप्त हो जाता हैं, किंतु जब तक मानसिक, वाचिक, कायिक योगों का प्रवृत्तियों का त्याग नहीं होता, तब तक सिद्धत्व, मुक्तत्व प्राप्त नहीं होता । योग उसमें बाधक है । अत एव कर्मों को क्षय करने के लिए समस्त लोक में आत्म-प्रदेशों को फैलाने की एक विशिष्ट प्रक्रिया है जैसे गीले वस्त्र सिमटे हुए हों तो उन्हें सूखने में बहुत समय । लगता है, परन्तु फैला देने पर शीघ्र सूख जाते हैं। समुद्धात को इसी प्रकार समझना चाहिए। । । आत्म प्रदेशों के साथ संश्लिष्ट परमाणु भी आकाश में फैल जाते हैं। अतः उनका क्षय अपेक्षाकृत | स्वल्प- काल में हो जाता है। इस प्रकार वेदनीय आदि कर्मों के साथ उनका सामंजस्य हो जाता है । सयोगावस्था मिट जाती है तथा अयोगावस्था प्राप्त हो जाती है। यह योग सन्यास का स्वरूप है। सन्यास का अर्थ त्याग है। यहाँ योग छूट जाते हैं । योगों की अयोगावस्था आचार्य हरिभद्र सूरि ने योग की बहुत ही सूक्ष्म परिभाषा करते हुए कहा है कि योगों का मन, वचन एवं देह से संबद्ध कर्मों का अयोग - असंबंध या रहितता परम उत्कृष्ट योग है, क्योंकि वह आत्मा को मोक्ष से जोड़ता है। यह सर्व सन्यास सर्वत्याग स्वरूप है। वहाँ आत्म-भाव के अतिरिक्त और समस्त भाव छूट जाते हैं।' अनुचिन्तन प्रस्तुत श्लोक में ग्रंथकार ने योगों के अयोग द्वारा उत्तम योगावस्था प्राप्त होने का उल्लेख किया १. योगदृष्टि समुच्चय, श्लोक - ११. 368 अ क ही फल से | में गह है, एव त्य सत् यि अ‍ वर्ह पा १. ₹
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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