________________
जैन-योग पद्धति द्वारा सिद्धत्व की साधना
'जागृति (जागर्ति) [ष्ट्य-युक्त है, उस लता रूप पद को केवल शास्त्रों के आदि प्राप्त हो जाए है। वैसा होने पर हने मात्र से ऐसा
सामर्थ्य-योग के भेद र सामर्थ्य योग के 'धर्म-सन्यास' और 'योग-सन्यास' नामक दो भेद हैं। क्षायोपशमिक या भयोपशम से उत्पन्न होने वाली स्थितियाँ धर्म हैं तथा शरीर आदि का कर्म, योग है।
प्रथम भेद- धर्म-सन्यास द्वितीय अपर्वकरण में क्षपक-श्रेणी के आरोहण में सिद्ध होता है, जो कर्मों के क्षय के माध्यम से गतिशील होती है।
द्वितीय भेद- योग सन्यास 'आयोज्यकरण' के पश्चात सिद्ध होता है।
तान, आत्मानुभूति 'सामर्थ्य-योग' ही कता।
बहुत सूक्ष्म और हा जाता है। यह स्फुटन होता है। अनुभव सहज ही परिधि सीमा है। तियाँ होती हैं।
समीक्षा
गुणस्थानमूलक आरोहण क्रम से ऊर्ध्वगमन करता हुआ साधक द्वितीय अपूर्वकरण में क्षपक-श्रेणी स्वीकार करता है, जो कर्मों के क्षायिक भाव से उद्भूत होती है।
द्वितीय अपूर्वकरण का एक विशेष आशय है। जैन शास्त्रों में अपूर्वकरण के दो भेद माने गए हैं। अपूर्वकरण आत्मा के उस विशिष्ट उत्साहपूर्ण अध्यवसाय का सूचक है, जैसा पहले कभी नहीं हुआ। ___ जीव अनंत काल से संसार में जन्म-मरण के चक्र में भटकता आ रहा है। शास्त्रों में पहाड़ से निकल कर बहती हुई नदी में लुढ़कते हुए पत्थर की उपमा उसे दी गई है। वह पत्थर लुढ़कता-लुढ़कता गोल आकार पा लेता है। कोई वैसा करता या बनाता नहीं। वैसे ही भटकते-भटकते जीव द्वारा सहज रूप में एक ऐसा आंतरिक अध्यवसाय सध जाता है, जिससे उसकी मिथ्यात्व की ग्रंथि खुल जाती है। उसे सम्यक्त्व-बोधि की ज्योति की एक झलक प्राप्त होती है। जीव का वह सहज रूप में हुआ आंतरिक अध्यवसाय प्रथम अपूर्वकरण कहा जाता है। अर्थात् पहले-पहल उसके द्वारा यह अध्यवसाय हुआ है। उसके पूर्व वैसा कभी नहीं हुआ।
अपूर्वकरण आत्मा के तीव्रतम अध्यवसाय के परिणामस्वरूप क्षपक श्रेणी में चढ़ने के समय | होता है। यह दूसरी बार का अत्यंत प्रबल अध्यवसाय है।
क्षपक श्रेणी में चढ़ जाने के बाद साधक का फिर पतन नहीं होता। उत्तरोत्तर वह ऊर्ध्वगमन करता जाता है। क्षपक-श्रेणी के समकक्ष उपशम श्रेणी चलती है। वहाँ जीव कर्मों का उपशम करके चढ़ता है। वहाँ अपूर्वकरण नहीं होता।
उपशम में कर्म सर्वथा नहीं होते, इसलिए उस श्रेणी द्वारा ऊपर चढ़ता हुआ साधक पतित हो
ण केवल शास्त्रों [ अनुभूतियों के
क्रमश: तेरहवें, में वैसी शक्ति
में आगे बढ़ने ल्य नहीं पाती।
| १. योगदृष्टि समुच्चय, श्लोक-९, १०.
367