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________________ णमो सिध्दाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन | ANICEEDIA R ३. सामर्थ्य-योग शास्त्रों में जिसके उपाय प्रतिपादित हैं, किंतु शक्ति के उद्रेक- आत्मशक्ति की जागति (जागर्ति) या प्रबलता के कारण जिसका विषय शास्त्र से भी अतिक्रांत- अतीत है, अर्थात् वैशिष्ट्य-युक्त है, उस प्रकार का उत्तमयोग 'सामर्थ्य-योग' कहा जाता है। योगी-जन सिद्धि- चरम सफलता रूप पद को प्राप्त करने के जो हेतु हैं, उनका रहस्य, उनके कारणों का तात्त्विक विश्लेषण केवल शास्त्रों के माध्यम से ही पूरी तरह जान नहीं पाते। शास्त्र द्वारा सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान आदि प्राप्त हो जाए तो प्रत्यक्ष इंद्रिय निरपेक्ष ज्ञान का उद्भव होता है। उससे सर्वज्ञता प्राप्त होती है। वैसा होने पर सिद्धि, परम सफलता, मुक्तता, सिद्धत्व प्राप्त होता है- ऐसा कहा जाता है, पर कहने मात्र से ऐसा सिद्ध नहीं होता। ऐसा होने का प्रातिभ ज्ञान- प्रतिभा या असामान्य आत्म-ज्योति से उत्पन्न ज्ञान, आत्मानुभूति या स्व-संवेदन के अद्भुत प्रकाश या असाधारण तत्त्व-चिंतन की दीप्ति से युक्त 'सामर्थ्य-योग ही सर्वज्ञत्व का हेतु है। उसकी विशेषता या सूक्ष्मता को शब्दों द्वारा नहीं कहा जा सकता। समीक्षण ___ इच्छा-योग और शास्त्र-योग के बाद सामर्थ्य-योग की जो चर्चा आई है, वह बहुत सूक्ष्म और गंभीर है। 'समर्थस्य भाव: सामर्थ्यम्' के अनुसार समर्थ या सक्षम का भाव सामर्थ्य कहा जाता है। यह विपुल शक्ति का द्योतक है। सामर्थ्य तब प्राप्त होता है, जब आध्यात्मिक शक्ति का प्रस्फुटन होता है। वह साधक की स्वानुभूतिपरक दशा है। आत्मा का यह आंतरिक जागरण है। ऐसा अनुभव सहज ही प्रगट होता है, जो शास्त्रों में अप्राप्त है। शास्त्र तो बाह्य साधन हैं। उनकी अपनी परिधि सीमा है। जब आत्मानुभूति का स्रोत प्रवहणशील हो जाता है, तब साधक को विलक्षण अनुभूतियाँ होती हैं। सिद्धत्व या मुक्तावस्था सर्वोच्च पद है। उसे प्राप्त करने के कारणों का विश्लेषण केवल शास्त्रों द्वारा संभव नहीं है। वह 'सामर्थ्य-योग' से ही संभव है। अर्थात् आत्मा की सहज अनुभूतियों के माध्यम से उन हेतुओं को जाना जा सकता है, जो हेतु सिद्धत्व प्राप्त कराते हैं। साधारणत: शास्त्रों में सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र को अपनाकर क्रमश: तेरहवें, चौदहवें गुणस्थान तक आरोहण का क्रम बतलाया गया है, किंतु जब तक आत्मा में वैसी शक्ति प्रस्फुटित नहीं होती, आत्मावलोकन एवं आत्म-परिणमन द्वारा विलक्षण अनुभूति के रूप में आगे बढ़ने का संबल प्राप्त नहीं होता, तब तक मोक्ष रूप अंतिम मंजिल तक पहुँचने की यात्रा साफल्य नहीं पाती। वह तभी सफल होती है, जब सामर्थ्य-योग प्राप्त होता है। १. योगदृष्टि समुच्चय, श्लोक-५-८. 366 SUPER
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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