________________
जैन-योग पद्धति द्वारा सिद्धत्व की साधना ।
रि-अनुष्ठान
।
का निश्चय ष्ठान किया
समान है,
है, अर्थात् हयोग का
विमर्श
'अनुष्ठीयते इति अनुष्ठानम्'- जो कार्य सावधानीपूर्वक निष्पादित होता है, उसे अनुष्ठान कहते हैं। वह दो प्रकार का है- सत् और असत् ।
असदनुष्ठान पाप-पूर्ण होता है। वह दूषित, कलुषित कार्यों के साथ जुड़ा होता है। सदनुष्ठान पण्यात्मक होता है। भावना की दृष्टि से वह अनेक प्रकार का होता है। भावना कर्ता पर टिकी रहती है। कर्ता अपनी भूमिका में अवस्थित होता है। भूमिका का तात्पर्य स्थिति है।
- जैन सिद्धांत की दृष्टि से उसे दो भागों में विभक्त किया गया है। एक स्थिति वह है, जहाँ मनुष्य घोर आसक्ति और मोह में फँसा होता है। चरम पुद्गल परावर्त के पूर्व वही स्थिति रहती है। वहाँ किए जाने वाले अनुष्ठान पर उसका प्रभाव रहता है।
जैसा विवेचन हुआ है, चरम पुद्गल-परावर्त की स्थिति किससे उज्ज्वल होती है, क्योंकि कर्मों का कालुष्य वहाँ अपेक्षाकृत अल्प हो जाता है। उस चरम पुद्गल-परावर्त में विद्यमान साधक की भी भावना के उच्चत्व की तरतमता के आधार पर अनेक कोटियाँ होती हैं। योगाभ्यास और ध्यान के पथ पर अग्रसर होने वाला साधक जब पूर्व-सेवा में वर्णित विशेषताओं को अपना लेता है, तब वह साधना में उत्तरोत्तर सफल हो जाता है।
इस विवेचन का निष्कर्ष यह है कि योगाभ्यासी के जीवन में गुरु और अरिहंत-सेवा, मोक्ष में विश्वास, अभिरुचि, असद्-अनुष्ठान का त्याग, सद्-अनुष्ठान का स्वीकार आदि फलित होने चाहिएं। यह योगाभ्यास की मूल पृष्ठभूमि है। जिस भवन की पृष्ठभूमि या नींव सुदृढ़ और मजबूत होती है, वह भवन चिरस्थायी होता है। अत एव आचार्य हरिभद्र सूरि ने योगाभ्यासी के लिए पूर्व-सेवा में निष्णात होना आवश्यक माना है।
- आज भारतवर्ष में तथा अन्यत्र योग का अनेक रूपों में प्रचार-प्रसार है। अनेक केंद्र संचालित हैं, जहाँ ध्यानादि का शिक्षण दिया जाता है। यह आत्म-जागरण की दृष्टि से एक शुभ लक्षण है, किंतु योगाभ्यास पूर्व तदनुरूप व्यक्तित्व-निर्माण का प्रयास विशेष परिलक्षित नहीं होता।
योग केवल आसन, प्राणायम तक ही सीमित नहीं है। उसका मुख्य लक्ष्य ऐसी मानसिकता की संरचना है, जिसमें तुच्छ स्वार्थ, राग-द्वेष एवं ईर्ष्यामूलक दृष्टियाँ मिट जाएं। इनके मिटे बिना मन ध्यान के लिये वांछित भूमिका नहीं पा सकता। वहाँ ध्यान केवल यांत्रिक हो जाता है। कुछ समय के लिये अभ्यासार्थी नेत्र मूंद लेता है, किन्तु मन में एकाग्रता नहीं आ पाती। जिस परमतत्व का वह ध्यान करना चाहता है, वह कहीं का कहीं छूट जाता है। ध्यान में क्षण-क्षण नए-नए लौकिक प्रतीक
बता जुड़ी
भृति जो
पहले के
में कर्ता धर्म की
विशिष्ट परावर्तों
363
484