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________________ णमो सिध्दाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन उपस्थित होने लगते हैं। अत एव सत्यनिष्ठा, तितिक्षा, विनय, शिष्टता, आत्मानुशासन, निस्पृहता, उदारता आदि गुणों का संचय कर ऐसे निर्मल व्यक्तित्व का निर्माण करना चाहिए, जिससे ये बाधाएं उपस्थित न हों, इस ओर आचार्य हरिभद्र सरि ने चित्त-वत्ति-निरोधमलक उपक्रमों द्वारा योग- जो 'मानसिक, वाचिक, कायिक वृत्तियों से सर्वथा अतीत होकर अयोगावस्था पाना है', के सन्दर्भ में अनेक रूपों में अपना मौलिक चिन्तन दिया है। योग के भेद योग को स्वायत्त करने के लिए साधक को एक व्यवस्थित क्रम अपनाना होता है। तदनुरूप मनोभूमि तैयार करनी होती है। चिन्तन और मनन द्वारा उसे परिपुष्ट और प्रथित करना होता है। वैसा होने पर अन्त:स्फूर्ति जागरित होती है। उसके परिणामस्वरूप योगोन्मुख पुरुषार्थ या उद्यम अभ्युदित होता है। आचार्य हरिभद्र सूरि ने इसी भाव से योगदृष्टि समुच्चय में इच्छा-योग, शास्त्र-योग और सामर्थ्य-योग के रूप में- योग के तीन भेद किए हैं, जो योगेच्छा से प्रारंभ होकर योग-सिद्धि तक पहुँचने का एक पथ-प्रशस्त करते हैं। १. इच्छा-योग जो पुरुष धर्म की, आत्मोत्थान की इच्छा रखता है, जिसने शास्त्रीय सिद्धातों को सुना है, ऐसे | ज्ञानयुक्त पुरुष का प्रमाद के कारण विकल- अपूर्ण धर्म-योग, इच्छा-योग कहा जाता है।' अनुचिंतन किसी भी कार्य में पहली भूमिका इच्छा की होती है। सबसे पहले मन में इच्छा जन्म लेती है। साधना में भी यही स्थिति है। साधक के मन में आता है कि मैं धर्म को प्राप्त करूँ, जिसके द्वारा मेरे जीवन का साध्य सफल हो। ऐसी बात किसी के मन में तब आती है, जब उसने शास्त्रों को सुना हो। गुरु जन, साधु जन से श्रवण करके ही वह धर्म की महत्ता जान सकता है। वह समझता है कि धर्म के बिना जीवन कदापि सार्थक नहीं है। इस संबंध में एक श्लोक बहुत प्रसिद्ध है आहार-निद्रा-भय-मैथुनं च, सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् । धर्मो हि तेषामधिको विशेषो, धर्मेण हीना: पशुभि: समाना:।। अर्थात् भोजन, निद्रा, भय, भोग- ये मनुष्यों में और पशुओं में एक समान हैं। मनुष्य में धर्म | की विशेषता है। जिनमें धर्म नहीं है, वे पशु तुल्य हैं। १. योगदृष्टि समुच्चय, श्लोक-३. 364
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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