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जैन-योग पद्धति द्वारा सिद्धत्व की साधना
तक तो जिसका ता है। गुरुजन, । उनके के प्रति ते हैंने वाले
क्षि का मन में मे सेवा
उन सबका भिन्न-भिन्न योनियों में भिन्न-भिन्न मंत्र रूप से संस्पर्श करता है, उनको काम में लेता है, उसे एक पुद्गल परावर्त कहते हैं। ऐसे अनेकानेक पुद्गल-परावर्त करते-करते जीव अंतिम पुद्गल-परावर्त में पहुंचता है। उसे अंतिम इसलिए कहा जाता है कि उस पुद्गल-परावर्त के बाद, उसे फिर और पुद्गल-परावर्त नहीं करना होता। __ आचार्य हरिभद्र सूरि यहाँ यह बतलाते है कि अंतिम पुद्गल-परावर्त से पहले के पुद्गल-परावर्ती में जीव में अत्यधिक संसारासक्ति रहती है। उसका अनुष्ठान असद्-अनुष्ठान है। अंतिम पुद्गल-परावर्त में ऐसा नहीं होता, क्योंकि वहाँ पहुँचते-पहुँचते उसके कर्म-मल में अल्पत्व आ जाता है। कर्म हल्के पड़ जाते हैं। उसका व्यक्तित्त्व सदाचारोन्मुख बन जाता है। सत् के प्रति उसमें एक उत्सुकता जागरित होती है। तदनुसार वह वैसे कार्यों में, जो पूर्व-सेवा के अन्तर्गत व्याख्यात हुए हैं, सहजतया अभिरूचिशील बनता है, उस ओर समुद्यत होता है। रुचि और उद्यम का जहाँ समन्वय होता है, वहाँ व्यक्ति अपनी क्रिया में, चर्या में उत्तरोत्तर सफल होता जाता है। अनुष्ठान के भेद
कर्ता के भेद से एक ही अनुष्ठान भिन्न-भिन्न प्रकार का हो जाता है। जैसे एक ही भोज्य पदार्थ रुग्ण- अस्वस्थ तथा स्वस्थ व्यक्ति द्वारा सेवन किया जाए तो उस पदार्थ की फल निष्पत्ति एक जैसी नहीं होती। पुनश्च, कोई पौष्टिक पदार्थ स्वस्थ पुरुष के लिए हितप्रद होगा तथा अस्वस्थ के लिए हानिप्रद होगा। पदार्थ तो एक ही है, किंतु उनका सेवन करने वाले भिन्न-भिन्न स्थिति के हैं।
गुरु, देव आदि की सेवा, व्रत, प्रत्याख्यान, सदाचार-पालन आदि अनुष्ठान अपेक्षा भेद से योग में पाँच प्रकार के बतलाए गए हैं
१. विष, २. गर, ३. अननुष्ठान, ४. तद्हेतु एवं ५. अमृत । १. विष-अनुष्ठान
जिस अनुष्ठान या योगाभ्यास के साथ लब्धि- योग-विभूति या चामत्कारिक शक्ति पाने का लक्ष्य रहता है, उसे विष-अनुष्ठान कहा जाता है, क्योंकि वह चित्त की सात्त्विकता या पवित्रता को नष्ट कर देता है। वह योग जैसे महान कार्य को छोटे से प्रयोजन के साथ जोड़ कर तुच्छ बना देता है। अर्थात् साधक में लघुत्व- हलकापन ला देता है।
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२. गर-अनुष्ठान __ जिस अनुष्ठान के साथ दिव्य भोगों की, स्वर्ग-सुखों की अभिलाषा, आकांक्षा बनी रहती है, ज्ञानी
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