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________________ CAME PATRURAL णमो सिध्दाण पदा: समीक्षात्मक परिशीलन है। अंत:करण की शुद्धता के बिना जो श्रमण-धर्म का पालन किया जाता है, वह नव ग्रैवेयक तक तो पहुँचा देत है, किंतु प्रशंसनीय नहीं है। वह तो अन्याय से अर्जित किए गए धन के समान है, जिसका परिणाम दुःखप्रद होता है। इस कारण मोक्ष के प्रति द्वेष का अभाव आत्महित में सहायक होता है। उससे आत्मा का श्रेयस् सिद्ध होता है। इस प्रकार जिनका मोक्ष-मार्ग में द्वेष नहीं होता, जो गुरुजन. अरिहंत देव आदि की आराधना करते हैं, वे अपने जीवन में उत्तम, श्रेयस्कर कार्य कर पाते हैं। उनके अतिरिक्त वे लोग, जिनमें बड़े दोष परिव्याप्त हैं, श्रेयस्कर मार्ग प्राप्त नहीं कर सकते। मोक्ष के प्रति अद्वेष रखना अत्यंत आवश्यक है। इस बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए ग्रंथकार लिखते हैंगुरुजन आदि की पूजा में इतना लाभ नहीं है, जितना अत्यंत अनर्थकारी सांसारिक प्रपंच से छुड़ाने वाले मोक्ष के प्रति अद्वेष भाव में है। में पड होत अभि व्यवि विशेष योग-साधक के लिए सबसे पहली बात यह है कि वह मोक्ष में सच्ची निष्ठा रखे । “मोक्ष का अस्तित्व है, वह साधना द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। वह शाश्वत सुखमय है"- ऐसा मन में विश्वास होना चाहिए। पूर्व-सेवा' में सबसे अधिक महत्त्व इसी बात का है। गुरुजन आदि की सेवा का उतना महत्त्व नहीं है। वह एक शिष्टाचार या शिष्ट व्यवहार है, किंतु मोक्ष का विषय सत्यनिष्ठा, सम्यक्-बोधि या विश्वास के साथ जुड़ा हुआ है। अन रुग्णनहीं हानिए | पाँच असदनुष्ठान-वर्जन ___ भावाभिष्वंग- संसार में अत्यधिक आसक्ति से, अनाभोग योग से- कर्म निर्जरण के भाव के बिना, मन के उपयोग के बिना कर्म का होते रहना सदनुष्ठान नहीं है, असदनुष्ठान है। इस लोक में तथा परलोक में फल मिले, ऐसी अपेक्षा या इच्छा रख कर कर्म करना 'भावाभिष्वंग' कहा जाता है। जहाँ क्रिया में उचित अध्यवसाय या मन का योग न हो, वह अनाभोग कहा जाता है। अत्यधिक संसारासक्ति से युक्त अनुष्ठान अंतिम पुद्गल-परावर्त से पहले के पुद्गल-परावर्तों में होते हैं। अंतिम पुद्गल-परावर्त में सहज रूप में कर्म-मल का अल्पत्व होता है। अत: वहाँ अत्यधिक |संसारासक्ति से युक्त अनुष्ठान नहीं होता। १. दि समीक्षा यहाँ जैन दर्शन की दृष्टि से एक सूक्ष्म तात्त्विक तथ्य है। संसार में जितने पुद्गल हैं, कोई जीव लक्ष्य कर दे अर्थात २. योग बिंदु, श्लोक-१४९. १. योगबिंदु, श्लोक-१३९, १४६. ३. योगबिंदु, श्लोक-१५२, 360 PUNAMEER RSTINDGand
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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