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जैन-योग पद्धति द्वारा सिद्धत्व की साधना
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सदाचार
व्यक्ति का अपना गृहस्थ-जीवन बहुत संतुलित, सुव्यवस्थित होना चाहिए। इस हेतु ग्रन्थकार ने आगे सदाचार की व्याख्या करते हुए बतलाया है--
लोक-निंदा से भय, जो व्यक्ति सहायता के पात्र हैं, उनको सहयोग करने में उत्साह, जिन्होंने अपना उपकार किया हो उनके प्रति कृतज्ञ-भाव, बुद्धिमत्तापूर्ण शिष्ट व्यवहार, सर्वत्र निंदा का परित्याग, सत्पुरूषों के गुणों का संस्तवन, संकट या विपत्ति आने पर अदीनता, अत्यंत सहिष्णुता, वैभव और संपत्ति में विनम्रता, संभाषण में मितभाषिता एवं अविसंवादिता- अपने कथन को अपनी ही बात से न काटना, गृहीत प्रतिज्ञाओं का परिपालन, कुल-क्रम से आते हुए धर्म-कृत्यों का अनुसरण, अनुचित व्यय का परित्याग, अयोग्य कार्यों में धन-व्यय न करना, प्रमुखत:- पहले करने योग्य कार्य में अनिवार्य रूप से तत्परता, आलस्य का वर्जन, लोकाभिमत आचार का अनुसरण, उचित बात का सर्वत्र परिपालन तथा निन्दित कार्यों में प्राण जाने पर भी अप्रवृत्ति- प्रवृत्त न होना- ये सब सदाचार में समाविष्ट हैं।
मोक्ष में अद्वेष
मोक्ष में अद्वेष की जो बात पूर्व-सेवा में कही गई है, उसका स्पष्टीकरण करते हुए ग्रंथकार लिखते हैं- जो मनुष्य महामोह से अभिभूत होते हैं, उनमें मोक्ष के प्रति द्वेष होता है, वे मोक्ष की निन्दा करते हैं, तथा बार-बार जन्म-मरण के चक्र में पड़ते हैं।
जो भव्य पुरुष मोक्ष के प्रति द्वेष नहीं करते, वे धन्य हैं। मोह, भव का- जन्म-मरण रूप संसार का बीज है। उसका जो परित्याग कर देते हैं, वे कल्याण के भागी हैं। सद्-ज्ञान, सद्-दर्शन, सत्-चारित्र मुक्ति के उपाय कहे गए हैं। ये आत्मा के गुण हैं। भव्य-जन इनके नाश हेतु प्रवृत्त नहीं होते। वे ऐसे कार्य नहीं करते, जिनसे रत्नत्रय दूषित हो।
जैसे स्वाराधना- आत्मा की या ज्ञान, दर्शन, चारित्र की आराधना का सर्वश्रेष्ठ फल मोक्ष बतलाया गया है, उसी प्रकार उनकी विराधना का फल अत्यंत अनर्थ उत्पन्न करने वाला है। बहुत ऊँचे स्थान पर चढ़कर वहाँ से गिरना, जहरीले अन्न को खाकर तृप्ति मानना-जैसे अनर्थकर है, उसी प्रकार ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र का नाश आत्मा के लिए बहुत अकल्याणकर है।
शस्त्र, अग्नि तथा साँप को यदि विधिवत न रखा जाए तो वे कष्टकारक सिद्ध होते हैं, उसी प्रकार श्रमण-जीवन का, साधुत्व का, पूरी तरह निर्वाह न हो तो शास्त्रों में उसे अशोभनीय या क्लेशकर कहा
शंका
वेशेष
-मार्ग लिए वकों
कष्ट
|१. योगबिंदु, श्लोक : १२६-१३०.
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