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णमो सिध्दाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन
दानशीलता
आचार्य हरिभद्र ने इस विषय में आगे और कहा
अपने पोष्य-वर्ग- अपने द्वारा पोषित किये जाने योग्य, अपने ऊपर आश्रित जनों के लिए कोई असुविधा उत्पन्न न करते हुए , अपने हित में बाधा न लाते हुए दीन आदि वर्ग को औचित्यपूर्वक दान देना चाहिए। व्रतों का पालन करने वाले, साधु के वेश में विद्यमान सदा अपने सिद्धांत के अनुसार चलने वाले व्यक्ति दान के धर्मानुगत पात्र हैं, क्योंकि वे अपने लिए भोजन नहीं पकाते।
जो कार्य करने में असमर्थ हों, नेत्र-हीन हों, दुःखी हों, विशेषत: व्याधि-पीड़ित हों, निर्धन हों, जिनके आजीविका का कोई साधन न हों, ऐसे व्यक्ति भी दान के अधिकारी हैं। उपयुक्त दान वह है, जो देने वाले और लेने वाले- दोनों के लिये उपकारक है। रूग्ण को अपथ्य दिये जाने जैसा दान नहीं होना चाहिए। जैसे रुग्ण को अपथ्य देने से उसका अहित होता है, उसी प्रकार ऐसा दान नहीं देना। चाहिए , जो गृहीत के लिए अहितकर हो।
दान, शील, तप और भावना- धर्म के इन चार पदों में दान पहला है। वह दारिद्र्य- क्लेश का नाश करता है, लोकप्रियता प्रदान करता है, यश की वृद्धि करता है।
आचार्य हरिभद्र सूरि ने यहाँ दान के संबंध में जो विवेचन किया है, उसकी गहराई में जाएं तो ऐसा प्रतीत होता है कि जहाँ वे एक ओर बहुत बड़े विद्वान् एवं तत्त्वज्ञ थे, वहीं अत्यंत व्यावहारिक भी थे। उन्होंने पूर्व-सेवा के रूप में जिन कर्तव्यों का बोध कराया है, वे विशेषरूप से योगाभ्यास में उद्यत गृहस्थ साधकों के लिए हैं।
आचार्य हरिभद्र ने जो जैन योग का मार्ग आविष्कृत किया, वह साधु और गृहस्थ सबके लिए है। साधु तो नियम-बद्ध जीवन जीते हैं। इसलिए उनकी ओर से प्रमाद, असावधानी आदि होने की आशंका बहुत कम रहती है, किंतु गृहस्थों से असावधानी होना बहुत कुछ आशंकित है। इसलिए उन्होंने विशेष रूप से यह उल्लेख किया कि जो जीवन का सर्वोत्तम लक्ष्य- सिद्धत्व प्राप्त करने हेतु योग-मार्ग स्वीकार करना चाहते हैं, उनके लौकिक जीवन में किसी प्रकार का विसंवाद नहीं होना चाहिए। इसलिए उन्होंने दान के संबंध में यह सूचित किया है कि अपने आश्रित जनों, पारिवारिक-जनों तथा सेवकों को कष्ट न हो, यह ध्यान रहे, ऐसे पुण्य-लोभी, भावुक दानी भी होते हैं, जिनके आश्रित जन कष्ट पाते रहते हैं और वे दूसरों को दान देते रहते हैं।
१. जैन योग ग्रंथ चतुष्टय : योगबिंदु, श्लोक-१२१-१२५.
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