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________________ जैन-योग पद्धति द्वारा सिद्धत्व की साधना बाह्य विषयों ना योग है। न में लगभग द्धान्तानुसार प से चिंतन वीकार करने मक एक जैन 'कि उन्होंने निष्णात आचार्य हुए, जिन्होंने 'ज्ञानार्णव' नामक ग्रंथ की रचना की। वह भी जैन योग पर एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। और भी अनेक विद्वानों ने इस विषय में रचनाएं कीं, जिनमें उपाध्याय यशोविजय का नाम बहुत प्रसिद्ध है। इस अध्याय में जैन योग की पद्धति से सिद्धत्व की साधना का विवेचन किया जाएगा। योग का आरंभ : पूर्व-सेवा | आचार्य हरिभद्र सूरि द्वारा उल्लिखित जैन योग के रूप में जो साधना पद्धति प्रचलित है, वह न केवल सैद्धांतिक या वैचारिक दृष्टि से ही महत्त्वपूर्ण है, अपितु व्यावहारिक या क्रियात्मक दृष्टि से भी बहुत उपयोगी है। - उन्होंने योगबिंदू में 'पूर्व-सेवा' के नाम से योगाभ्यास में रत होने के लिए उद्यत साधक को कर्तव्य-बोध दिया है। पूर्व-सेवा का तात्पर्य उन कार्यों का अभ्यास या आचरण है, जिन्हें एक योग साधक को साधना में जाने से पूर्व प्राप्त कर लेना चाहिए , उनका अभ्यास कर लेना चाहिए। वैसा करने पर वह योग-साधना के अनुरूप पृष्ठभूमि प्राप्त करता है। पूर्व-सेवा का विवेचन करते हुए वे लिखते हैं- गुरुजनों तथा देवों का पूजन, उत्तम आचार का सेवन, तपश्चरण एवं मुक्ति से अद्वेष, मोक्ष का अविरोध- मोक्ष को बुरा न बताना, उस ओर अरूचि न रखना- सदा रूचिशील रहना, इन्हें शास्त्र-वेत्ताओं ने पूर्व-सेवा कहा है। 'ढालने का पना के क्षेत्र 'संस्कृत में न योग पर तक माना अपने युग लिखे। वे ।। उनकी अध्यात्मदन है। गुरुजन-सेवा माता-पिता तथा कलाचार्य- विद्याओं का शिक्षक, इनके माता-पिता आदि पारिवारिकजन, वृद्ध-पुरुष तथा धर्मोपदेष्टा- धर्म का उपदेश देने वाले सत्पुरुष गुरुजन में सम्मिलित हैं। इन पूज्य गुरुजनों को प्रात:, मध्याह्न तथा सायं काल प्रणाम करना, यदि समक्ष उपस्थित होने का अवसर प्राप्त न हो तो मन में उनका आदर तथा श्रद्धा के साथ स्मरण करना, उन्हें मानसिक प्रणाम करना, यदि वे अपनी ओर आते हों तो उठकर उनके सामने जाना, उनके सानिध्य में चुपचाप बैठना अनुचित स्थान में उनका नामोच्चारण नहीं करना, कहीं भी उनकी निंदा न सुनना, यथाशक्ति उनकी सेवा करना, परलोक के लिए उत्तम फलप्रद धर्म-क्रिया के निष्पादन में उन्हें सदा सहयोग करना, उन्हें जो इष्ट न हो, वैसे कार्यों का परित्याग करना, उन्हें जो इष्ट हो, वैसे कार्यों का अनुपालन करनाऔचित्य-पूर्वक इन दोनों बातों का निर्वाह करना, जिससे उनकी धर्माराधना आदि में कोई असुविधा या बाधा न हो, उनके आसन आदि उपयोग में न लेना- ये कार्य गुरुजन की सेवा के अन्तर्गत हैं।' न्, योग १. जैन योग ग्रंथ चतुष्टय : योगबिंदु, श्लोक-१०९-११३. . 357 97
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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