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________________ णमो सिद्धाणं पर: समीक्षात्मक अनुशीलन वाला अर्थात् इस भूमिका में आने के अनंतर साधक संसार में फिर एक ही बार आता है। 1 ३. अनागामी सकृदागामी भूमि पार कर साधक अनागामी भूमि में आता है। विकास के मुख्य प्रतिबंधक हेतु ऊपर की भूमियों में नष्ट हो चुकते हैं । उसकी तितिक्षा, निर्भोग-वृत्ति तीव्रतम होती जाती है । इस भूमि में आने के बाद साधक को न संसार में और न किसी दिव्यलोक में ही जन्म लेना पड़ता है। | इसलिए यह अनागामी कहलाता है । ४. अर्हत् अर्हत् दशा विकास की उच्चतम पराकाष्ठा है। इसे प्राप्त करने के लिए साधक को रूप-राम, अरूप राग, मान, उद्धतता, अविद्या- इन पाँच बंधनों को भी विनष्ट करना होता है। जैसे ही ये बंधन टूट जाते हैं, क्लेश नष्ट हो जाते हैं । समस्त दुःख स्कंधों का अंत हो जाता है । साधक इस जगत् में रहते हुए भी तृष्णा क्षय के कारण संसार से सर्वथा निर्लेप रहता है । वह अप्रतिम शांति का अनुभव करता है । यह निर्वाणावस्था हैं । उपर्युक्त विकास-क्रम बौद्ध धर्म की हीनयान शाखा के अनुसार है, जो अन्य शाखाओं से प्राचीन है। पालि-त्रिपिटक इस शाखा का प्रामाणिक एवं मान्य ग्रंथ है। महायान : बोधिसत्त्व- यान हीनयान की अपेक्षा महायान में इन भूमियों की कल्पना भिन्न प्रकार से की गई है। इस संबंध में चर्चा करने से पूर्व इन दोनों शाखाओं के अंतर पर चिंतन करना अपेक्षित होगा। हीनयान व्यक्तिगत साधना का पक्षपाती है। वहाँ अर्हत् पद पाने का अर्थ साधक का वैयक्तिक रूप में परम उन्नत अवस्था में पहुँच जाना है । 1 महायान का लोकोद्धार की ओर विशेष झुकाव दिखाई देता है उसके अनुसार बोधिसत्त्वबोधि प्राप्ति द्वार केवल अपना ही मंगल और कल्याण नहीं चाहता, वह प्राणीमात्र को दुःख से छुड़ाना चाहता है। उसका 'स्व' इतना विस्तीर्ण और व्यापक हो जाता है कि उसमें समस्त जगत् के जीव मात्र | का समावेश होता है। जब तक एक भी प्राणी जगत् में दुःखी है, वह मुक्ति नहीं चाहता। उसके हृदय में इतनी करुणा और कोमलता भरी रहती है, वह किसी भी प्राणी को पीड़ित देखकर द्रवित हो उठता १. बौद्ध दर्शन मीमांसा, परिच्छेद १०, पृष्ठ ११७, ११८. 352
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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