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सिद्धत्व-पथ : गणस्थानमुलक सोपान-क्रम
उपकार
क्ति कभी निर्वाणोन्मुख नहीं हो सकता। साधक ज्यों ही इन बंधनों को तोड़ डालता है, उसके चरण अपतिपाति नहीं गिरने वाली संबोधि की ओर चल पड़ते हैं। बौद्ध ग्रंथों में संबोधि के चार अंग बतलाए गए है।
स्त्रों में
पा गया
*करता
गे जोड़ हाँ तक करना
१. बुद्धानुस्मृति
बौद्ध धर्म में अत्यंत श्रद्धा से युक्त होना, बुद्धानुस्मृति है। धर्मानुस्मृति
भगवान बुद्ध का धर्म स्वाख्यात है, सुंदर रूप में प्ररूपित है। सांदष्टिक- इसी जीवन में फलप्रद है। अकालिक- फल देने में कालिक-व्यवधान रहित है अर्थात् सद्य: फलप्रद है। इस प्रकार बुद्धनिरूपित धर्म में श्रद्धा रखना, धर्मानुस्मृति है। ३. संघानुस्मृति
बुद्ध के भिक्षु-संघ की न्याय-परायणता तथा सुमार्गानुरूढ़ता पर विश्वास रखना, संघानुस्मृति है। ४. शीलानुस्मृति | अखंडित, अनिन्दित, समाधिगामी, कमनीय शीलों का अनुसरण करना, शीलानुस्मृत्ति है। संबोधि के माध्यम से साधक स्रोतापन्न भूमि में पदार्पण करता है। यहाँ काम क्षय हो चुकता है। अर्थात् साधक इस अवस्था में काम-धातु- कामना या वासनामय जगत् से अपना संबंध विच्छिन्न कर लेता है। रूप धातु- विशुद्ध भूतमय या कामनावर्जित जीवन की दिशा में आगे बढ़ता है। _इसका यह आशय है कि वह एषणाओं और आकांक्षाओं से आंदोलित जीवन से मुँह मोड़कर अनेषणामय एवं आनाकांक्षामय जीवन को पाने के लिए प्रयत्नशील होता है। शास्त्रों में इसे नव जन्म कहा गया है, क्योंकि यह भोग-विरति और संयमानुरति का जीवन है। स्रोतापन्न-भूमि में विद्यमान साधक को निर्वाण-प्राप्ति के लिए सात से अधिक जन्म नहीं लेने पड़ते। २. सकृदागामी
स्रोतापन्न के आगे का सोपान सकृदागामी है। बौद्ध शास्त्रों के अनुसार स्रोतापन्न साधक काम-राग- इंद्रिय विषयक भोग लिप्सा तथा प्रातिघ- दूसरों का अनिष्ट करने की वृत्ति, इन दो बंधनों को हीन सत्त्व- क्षीण बल बना कर मुक्ति-पथ पर आगे बढ़ता है। सकृदागामी भूमि में आ जाने पर आम्रव-क्षय- क्लेश-नाश साधक का मुख्य कार्य रहता है। सकृद्+आगामी- एक बार आने
प्रवाह यहाँ से त्त को
कित्सा
तथा ग्रस्त
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