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________________ णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक अनुशीलन । 'बुद्धो भवेयं जगतो हिताय'- मैं जगत् के हित के लिए बुद्ध बनूँ, इस प्रकार वह लोगों का उपकार करने हेतु ही बुद्धत्व प्राप्त करना चाहता है। श्रावक-यान की साधना : विकास श्रावक-यान की साधना में उत्तरोत्तर वद्धिशील विकास-क्रम की एक रूपरेखा बौद्ध-शास्त्रों में बताई गई है। जैन शास्त्रों में वर्णित गुणस्थानों से वह तुलनीय है। ___ बौद्ध शास्त्रों में धर्मोन्मुखता के आधार पर प्राणियों- जीवों को दो भागों में विभक्त किया गया है। १. पृथक्जन और २. आर्य । १. पृथक् जन पृथक् जन वह है, जो अज्ञानवश संसार के माया जाल में फँसा रहता हुआ जीवन व्यतीत करता है। जो मनुष्य धर्म से पृथक्- अलग या दूर है, वह पृथक् जन है। २. आर्य जो व्यक्ति सांसारिक प्रपंच से हटकर बुद्धबोधित बोध की ज्योति- किरणों से अपने को जोड़ लेता है, तब वह आर्य कहा जाता है। अर्हत्-पद-प्राप्ति आर्य का चरम लक्ष्य होता है। वहाँ तक पहुँचने के लिए उसे स्रोतापन्न, सकृदागामी, अनागामी और अर्हत्- इन चार दशाओं को पार करना होता है। १. स्रोतापन्न स्रोत का अर्थ प्रवाह और आपन्न का अर्थ प्राप्त है। अर्थात् वह साधक, जिसने निर्वाण के प्रवाह को प्राप्त कर लिया है, स्रोतापन्न कहा जाता है। निर्वाण के पथ पर आरूढ़ हुए साधक को वहाँ से गिरने की जरा भी आशंका नहीं रहती। वह पाप से हट कर कल्याणमय प्रवाह में अपने चित्त को निमग्न रखता है। उत्तरोत्तर कल्याण की ओर बढ़ता जाता है। बौद्ध दृष्टि के अनुसार स्रोतापन्न दशा तब प्राप्त होती है, जब साधक सत्काय-दृष्टि, विचिकित्सा तथा शीलव्रत-परामर्श- इन तीन संयोजनों या बंधनों का क्षय कर देता है। आत्मा के नित्यत्व का स्वीकार, विचिकित्सा, सत्काय-दष्टि, बुद्ध-बोधित तत्त्वों में संदेह तथा शीलव्रत-परामर्श- व्रत, उपवास आदि में आसक्ति, बौद्ध दर्शन के अनुसार बंधन हैं। इनमें ग्रस्त १. बौद्ध दर्शन मीमांसा, परिच्छेद-१०, पृष्ठ : ११६. 350
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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