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________________ रण और रूप सात हैं, ऐसा क्षीण का है, I भोग विरति समान र उन मल ने पर है । त् है । सिद्धत्व-पथ : गुणस्थानमूलक सोपान-क्रम इन सात प्रज्ञाओं में विमुक्तिपूर्वक चैतसिक वृत्तियों से विमुक्त होकर केवल्य की ओर बढ़ते हुए जीवन का चित्रण है। कर्म चित्त प्रसूत हैं। अतः चित्त-विमुक्त होने पर कर्म विमुक्ति संभाव्य है। ये भूमियाँ जैन दर्शन के गुणस्थानमूलक विकास क्रम के साथ किन्हीं अपेक्षाओं से समन्वित होती आगे बढ़ने का मार्ग प्रस्तुत हैं । जैन दर्शन भी कषायात्मक, मोहात्मक चित्त वृत्तियों को मिटाते हुए I करता है। कर्म क्रमशः क्षीण होते जाते हैं। अन्ततः मन, वचन तथा काय के योगों प्रवृत्तियों का सर्वया निरोध हो जाता है, सिद्धत्व, मुक्तत्व प्राप्त हो जाता है। बौद्ध धर्म के तीन यान बौद्ध शास्त्रों में निर्वाण प्राप्ति के मार्ग को 'यान' कहा गया है। वे तीन प्रकार के हैं- १. श्रावकयान, २. प्रत्येक - बुद्ध - यान, ३. बोधिसत्व - यान । १. श्रावक-यान श्रावक-यान हीनयान का ही पर्याय है। श्रावक का अर्थ गुरु के पास जाकर धर्म सुनने वाला, सीखने वाला है। वह स्वयं अप्रतिबुद्ध होता है और उसमें निर्वाण प्राप्त करने की उत्कंठा होती है। वह योग्य अधिकारी या गुरु के पास जाकर धर्म-तत्त्व प्राप्त करता है। धर्म का सहायक या धर्म प्राप्ति में सहयोग करने वाला बौद्ध परंपरा में कल्याण-मित्र कहा जाता है। जैन परंपरा में भी इस शब्द का प्रचलन है। श्रावक का चरम लक्ष्य अर्हत् पद प्राप्त करना है । २. प्रत्येक-बुद्ध - यान जिसको अपने पूर्व संस्कारवश स्वयं बोध प्राप्त हो जाता है, गुरु के उपदेश या मार्गदर्शन की | आवश्यकता नहीं रहती, वह प्रत्येक बुद्ध कहलाता है । । । जैन आगमों में बताए गए सिद्धों के पंद्रह भेदों में पाँचवाँ स्वयं- बुद्ध है, जिसकी ज्ञान-प्राप्ति में ऐसी ही स्थिति है। प्रत्येक बुद्ध का प्रातिभचक्षु स्वयं उन्मीलित हो जाता है। वह केवल अपना उद्धार करता है। दूसरे का उद्धार करने की वृत्ति उसमें नहीं रहती । वह लोगों के बीच में नहीं रहता । इस इंद्रमय जगत् से हटकर किसी निर्जन स्थान में वास करता है। वह विमुक्ति के अनुपम सुख की अनुभूति में निमग्न रहता है । ३. बोधिसत्त्वयान बोधिसत्त्व यान वैयक्तिक मुक्ति से संतुष्टि नहीं मानता। वह समस्त प्राणियों को सांसारिक क्लेशों से मुक्त करना चाहता है । परोपकार या सेवा - वृत्ति उसकी विशेषता है । 349
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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