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सिद्धत्व-पथ : गुणस्थानमूलक सोपान-क्रम
बंधक हेतु ये है। इस
पड़ता है।
रूप-राग, से ही ये इस जगत् 1 अनुभव
है। महायान में जीवन-विकास की दस भूमिकाएँ मानी गई हैं
१. मुदिता, २. विमला, ३. प्रभाकरी, ४. अर्चिष्मती, ५. सुदुर्जया,
६. अभिमुक्ति, ७. दूरंगमा, ८. अचला, ९. साधमती, १०. धर्ममेध । ___ इन भूमिकाओं में बोधि-चित्त का उत्पाद समग्र प्राणियों के प्रति करुणा का संचार, मैत्री, दान, शास्त्रज्ञान, सहिष्णुता, कायिक, मानसिक, वाचिक पाप-वर्जन, काम-वासना एवं देह-तृष्णा का क्षय, जगत् से वैराग्य, मुक्ति की दिशा में उन्मुखता, शून्यत्व की उपलब्धि का प्रयत्न, सर्वज्ञत्व, धर्मोपदेश, तत्त्व-विवेचन, समाधिमूलक आनंद इत्यादि विषयों का समावेश है।
विकास की दृष्टि से जो क्रम इन भूमिकाओं में दिखलाया गया है, जैन गुणस्थानों के विकास-क्रम के साथ तुलना करें तो बोधि- सम्यक् ज्ञान, व्रत या शील का आचरण, सांसारिक सुखों में अरुचि, तत्त्व ज्ञान, संसार की आसक्ति, एषणा और वासनाओं से छूटने का विधि-क्रम, जो इनमें दृष्टिगोचर होता है, वह जैन दृष्टिकोण के साथ किन्हीं अपेक्षाओं से तुलनीय है। सार-संक्षेप | राग, द्वेष, काम, क्रोध, मोह, लोभ इत्यादि भाव और इनके आधार पर आविर्भयमान मानसिक, वाचिक, कायिक प्रवृत्तियों के निरोध और निवर्तन का जो मार्ग गुणस्थानों में प्रतिपादित किया गया है, शास्त्रीय सिद्धांतों के अनुशीलन-परिशीलन पर आधारित है। _ विकास की दिशा में बढ़ती हुई वैचारिक धाराओं का किस प्रकार संयमन किया जा सकता है, कर्म-प्रवाहमूलक आस्रवों का किस प्रकार संवरण हो सकता है, संग्रहीत- संचित कर्म-समुदाय का किस प्रकार निर्जरण, क्षरण- नाश हो सकता है, इनके भिन्न-भिन्न स्थितिमूलक स्तर किस प्रकार बढ़ते हैं, घटते हैं, संयमित किये जा सकते हैं- इत्यादि विषयों का गुणस्थानों के सन्दर्भ में जो विवेचन हुआ है, वह तत्त्वाभ्यास तथा क्रियाभ्यास दोनों की दृष्टियों से बड़ा उपयोगी है। ___ गुणस्थानों के अंतर्गत सद्बोध-व्रत, तपश्चरण-योग, ध्यान आदि सभी का समावेश हो जाता है। इन पर यथाविधि अग्रसर होने वाले साधक निश्चय ही सिद्धत्व-भाव स्वायत्त कर अनिर्वचनीय आध्यात्मिक आनंद स्वरूप हो जाते हैं।
। गुणस्थानमूलक सोपान-क्रम की तरह योग-विधि से भी सिद्धत्व तक पहुँचने का मार्ग जैन मनीषियों ने निर्देशित किया है।
। प्राचीन
संबंध
यक्तिक
सत्त्वछुड़ाना व मात्र
हृदय उठता
१. बौद्ध दर्शन मीमांसा, परिच्छेद-११, पृष्ठ : १४०-१४२.
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