SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 380
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ णमो सिद्धाण पद समीक्षात्मक अनशीलन उत्कर्ष की ओर बढ़ने में श्रद्धा और क्रिया की शिथिलता, स्फूर्तता, परिणामों की आसक्ति । अनासक्ति मोह का उपचय, इन सबका क्या स्थान है ? किन-किन दशाओं में, ये साधक को किस रूप में प्रभावित करते हैं, उत्कर्ष और अपकर्ष किस प्रकार चढ़ते एवं उतरते परिणामों से जुड़े हैं, कर्मों के आवरण और अनावरण के भावात्मक पक्ष किस प्रकार आध्यात्मिक उत्थान और पतन से अनेक अंशों में संलग्न हैं आदि पर जैन दर्शन ने व्यवस्थित रूप में अपने तलस्पर्शी विचार दिए हैं, जो शृंखला-बद्ध हैं। पातंजल योग दर्शन : चित्त-भूमियाँ । पातंजल योग-दर्शन आध्यात्मिक साधना के सिद्धांत-पक्ष और अभ्यास-पक्ष दोनों का विवेचन करने वाला प्रमुख शास्त्र है। महर्षि पतंजलि ने 'योग-सूत्र' में मोक्ष के साधन के रूप में योग का वर्णन किया है। जिस भूमिका से योग का प्रारंभ होता है, उससे लेकर क्रमश: भिन्न-भिन्न भूमिकाओं में पुष्ट होते, अंतत: जिस भूमिका में वह पूर्णता को पहुँचता है, वहाँ तक की चैतसिक स्थितियों को आध्यात्मिक विकास-क्रम में लिया गया है। योग दर्शन के प्रारंभ में समाधिपाद के द्वितीय सूत्र- 'योगश्चित्तवृत्ति निरोध:'- की व्याख्या करते | हुए योग-सूत्र के भाष्यकार महर्षि व्यास ने चित्त-भूमियों का वर्णन किया है। उन्होंने लिखा हैचित्त-भूमि का अर्थ, चित्त की अवस्था है। चित्त-भूमियाँ पाँच प्रकार की हैं- क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध। १. क्षिप्त __जो चित्त अत्यंत अस्थिर होता है, अतीन्द्रिय विषयों की विचारणा के लिए जितनी स्थिरता और बौद्धिक शक्ति की आवश्यकता है, उतनी जिस चित्त में नहीं है तथा जिस चित्त को संपूर्ण तत्त्वों की सत्ता अचिन्त्य प्रतीत होती है, वह चित्त 'क्षिप्त-भूमिक' होता है। २. मूढ़ | जो चित्त किन्हीं इंद्रिय-विषयों में मुग्ध होने के कारण तत्त्व-चिंतन करने में अयोग्य हो जाता है, वह 'मूढ़-भूमिक' चित्त है। वह मोहक विषयों में सहज ही समाहित- लीन हो जाता है। कंचनकामिनी के अनुराग से लोग इन विषयों में ध्यान-मग्न हो जाते हैं। ३. विक्षिप्त | जो क्षिप्त से विशिष्ट हो, उसे विक्षिप्त कहा जाता है। अधिकांश साधकों का चित्त विक्षिप्तभूमिक होता है। जिस अवस्था में चित्त कभी स्थिर हो जाता है और कभी-कभी चंचल हो जाता है, वह विक्षिप्त है। क्षणिक स्थिरता के कारण विक्षिप्त भूमिक चित्त श्रवण, मनन आदि द्वारा 344
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy