SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 381
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सिद्धत्व-पथ गणस्थानमुलक सोपान क्रम स्वरूप-अवधारण करने में कदाचन समर्थ होता है? मेधा तथा सद्वत्तियों की न्यूनता-अधिकता के कारण विक्षिप्तता के अनेक स्तर हैं। विक्षिप्त चित्त में भी समाधि हो सकती है, किंतु वह स्थायी नहीं होती, क्योंकि इस भूमि की प्रकृति कभी स्थिर और कभी अस्थिर होती है। FE -ta वेचन वर्णन ४. एकाग्र जिस चित्त का अग्र-अवलंबन एक है, वह एकाग्र चित्त है। सूत्रकार पतंजलि ने प्रतिपादित किया है- एक वृत्ति के निवृत्त होने पर यदि उसके बाद तदनुरूप वैसी ही वृत्ति उठे तथा उसी प्रकार की अनुरूप वृत्तियों का प्रवाह चलता रहे तो ऐसा चित्त 'एकाग्र-चित्त' कहा जाता है।' इस प्रकार की एकाग्रता जब चित्त का स्वभाव हो जाती है, जब दिन-रात में अधिकांश समय चित्त एकाग्र रहता है, यहाँ तक कि स्वप्नावस्था में चित्त एकाग्र रहता है, तब ऐसे चित्त को 'एकाग्रभमिक' कहते हैं। एकाग्र-भूमिक चित्त वशीकृत होने पर संप्रज्ञात समाधि सिद्ध होती है। यही समाधि वास्तविक है, कैवल्य की साधक है। 'को करते ५. निरुद्ध पाँचवीं भूमि निरुद्ध-भूमिक कहलाती है। यह शेष अंतिम अवस्था है। निरोध-समाधि के अभ्यास द्वारा जब चित्त का चिरस्थायी निरोध वशीकृत हो जाता है, तब उस अवस्था को निरुद्ध-भूमिक कहते हैं। 3. निरुद्ध-भूमिक में चित्त के विलीन होने पर कैवल्य प्राप्त होता है। संसार में जितने भी जीव हैं, उन सब के चित्त साधारणत: इन पाँच अवस्थाओं में रहते हैं। इनमें कौन-कौनसी भूमि समाधि के लिए उपादेय और कौन-कौन सी भूमि समाधि के लिए अनुपादेय है, भाष्यकार ने इसका विवेचन किया और की है। नाता वन - पंडित सुखलालजी संघवी ने इस संबंध में लिखा है- जो चित्त सदा रजोगुण की बहुलता से अनेक विषयों में प्रेरित होने के कारण अत्यंत अस्थिर होता है, वह क्षिप्त है। जो चित्त तमोगुण के प्राबल्य से निद्रा-वृत्ति-युक्त बनता है, वह मूढ़ है। जो चित्त विशेष अस्थिरता के होते हुए भी कभी-कभी प्रशस्त विषयों में स्थिरता अनुभव करता है, वह 'विक्षिप्त' है। जो चित्त एकतान, स्थिर बन जाता है, वह 'एकान' है। समस्त वृत्तियों का निरोध हो गया हो और संस्कार ही बाकी रहे हों, वह 'निरुद्ध चित्त है। १. योग-सूत्र, विभूतिपाद, सूत्र-१२. ३. योग-सूत्र, समाधिपाद, सूत्र-१-३. द्वारा २. योग-सूत्र, समाधिपाद, सूत्र-४४-५१. ४. दर्शन अने चिंतन खंड-२, पृष्ठ : १०१४ (टिप्पण). 345
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy