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सिद्धत्व-पथ : गुणस्थानमूलक सोपान-क्रम -
में प्रवृत्ति
योगवासिष्ठ में निरूपित इन सात भूमियों के अन्तर्गत चौथी भूमि में साधक ब्रह्मवित्, पाँचवीं भूमि में ब्रह्मविद्वर तथा छठी भूमि में ब्रह्मविद्वर्य कहा जाता है। सातवीं भूमि में इन तीनों से आगे की चरम उन्नत अवस्था है।
ये विकास दशाएँ जीवन-जीते हुए भी विद्यमान रहती हैं। वह अवस्था सदेहावस्था है। इसके अनंतर विदेह-मुक्ति की स्थिति आती है।'
1 तनुता
वेरक्ति से ना है।
बाह्य और चमत्कार-- मेका कहा
है। चौथी
समीक्षा
योगवासिष्ठ में वर्णित चौदह भूमियों में सात अज्ञान भूमियाँ जैन दर्शन की भाषा में मिथ्यात्व की सूचक हैं। मोह की गाढ़ता के तरतम भाव को अपनाए हुए वे मिथ्यात्व की उत्तरोत्तर वृद्धिंगतउग्रातिउग्र दशाएँ हैं।
ज्ञानभूमियाँ विकास की सूचक हैं। पहली भूमि में जीव अपनी अज्ञान-अवस्था पर आकुल हो जाता है। वह सोचता है- मैं क्यों मूढ़ बना हूँ ? मुझे यथार्थ का- सत्य का साक्षात्कार करना चाहिए। यह सद्बोध और सद्वीर्य की तीव्र अनुभूति है। यह जैन दर्शन में वर्णित 'अपूर्वकरण' जैसी स्थिति है। __तदनंतर साधक शास्त्र-ज्ञान अर्जित करता है, सत्पुरुषों का सत्संग करता है। अपने में उबुद्ध वैराग्य के अनुरूप अपना आचरण बनाता है। इस प्रकार वह सद् आचार- ब्रह्मोन्मुख चर्या या आत्मसाक्षत्कारमय प्रवृत्ति में संलग्न होता है। यह जैन परिभाषा के अनुसार दर्शनमोह और चारित्रमोह की शिथिलता से सत् श्रद्धा और सत् चारित्र में संप्रवृत्त होने की स्थिति है, जो चतुर्थ गुणस्थान से प्रारंभ होकर उत्तरोत्तर अग्रसर रहती है।
आगे की भूमियों में इंद्रिय-संबंधी भोगों के प्रति अनासक्ति, सवितर्क-समाधिरूप मन की तनुतासूक्ष्मता, सन्मात्र रूप शुद्ध आत्म-भाव में अवस्थिति, बाह्य और आभ्यंतर विषय-विकारों और संस्कारों के प्रति असंसक्ति- अनासक्तता, द्वैतभाव का अत्यंत उच्छेद, ब्रह्मसाक्षात्कार, जीवन्मुक्त आदि का जो विवेचन हुआ है, वह अप्रमत्त-संयत, निवृत्ति-बादर, अनिवृत्ति-बादर आदि से लेकर सयोग केवली गुणस्थान तक से तुलनीय है। योगवासिष्ठ में वर्णित जीवन्मुक्त सयोग केवली स्थानीय है। योगवासिष्ठ में प्रयुक्त विदेह-मुक्ति अयोग केवली दशा है। इस प्रकार सामान्यत: दोनों की एक सीमा तक संगति हो सकती है। ___ वस्तुत: जैन दर्शन में गुणस्थानों के रूप में आत्मा की क्रमिक उत्थानोन्मुख अवस्थाओं का बड़ा मनोवैज्ञानिक एवं तात्त्विक विकास हआ। उसमें तत्त्ववेत्ताओं का गहरा चिंतन भरा है।
आनंदमय हो जाता -अव्यक्त जाता है।
पाता, जो
से तुर्यगा
|१. योगवासिष्ठ, उपशम प्रकरण, अध्याय-११८, श्लोक-८-१६.
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