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सिद्धत्व-पथ: गुणस्थानमलक सोपान-क्रम
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विश्लेषण
पहली अवस्था में आत्मा का शुद्ध स्वरूप विजातीय परमाणुओं-कर्म-पृद्गलों से अत्यंत आच्छन्न रहता है। फलत: आत्मा मिथ्या अध्यवसाय लिए हुए परोन्मुख बनी रहती है। भौतिक सुख, विलास तथा समृद्धि को ही जीवन का परम लक्ष्य मानती हुई चलती है, जिन्हें प्राप्त करने के लिए प्राणपण से संलग्न रहती है। प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय गुणस्थान बहिरात्मावस्था के निदर्शन हैं।
दूसरी अवस्था में आत्मा के ऊपर छाया हुआ कर्मों का आवरण क्रमश: शिथिल तथा निःसत्त्व होता जाता है। परिणामस्वरूप उसकी दृष्टि भौतिक सुखों और एषणाओं से हटकर शुद्ध स्वरूप की ओर उन्मुख रहने लगती है। उसका लगाव कायिक कलेवर से न होकर आत्मा से ही- अपने आपसे ही बढ़ता जाता है।
दैहिक-अपचय- नाश में दु:ख तथा उपचय- वृद्धि में सुख की वृत्ति मिटती जाती है। यह अंतरात्मस्वरूप है। चतुर्थ से द्वादश गुणस्थान तक का इसमें समावेश किया गया है।
तीसरी अवस्था वह है, जहाँ आत्मा का आच्छादित स्वरूप प्रगट हो जाता है। वे कार्मिक आवरण, जो उसकी नैसर्गिक शक्तियों को अवरूद्ध कर रहे थे, मिट जाते हैं। सत्-चित्-आनंदमय स्वरूप की अमिट ज्योति जल उठती है। जीवन्मुक्त और तदनंतर सर्वमुक्त होकर आत्मा शाश्वत सुख का निरंतर, निश्चल और निरुपद्रव स्थान पा लेती है। इसमें तेरहवें, चौदहवें गुणस्थान का समावेश है। आत्मा की यह परमात्म रूप में विकास की अवस्था है।
जैन दर्शन में आत्मा की यही परमेश्वरत्व या परमात्मत्व की स्थिति है। सर्जन, पालन तथा संहार- ये अनादिकाल से चले आते सांसारिक कार्य हैं, जो अपने-अपने कर्म पुद्गलात्मक कारणसमुदाय पर, वीर्य, पराक्रम, उद्यम आदि पर आश्रित हैं। परमात्मा का, जो शुद्धत्व की चरम अभिव्यकि है, इनसे लगाव कैसे संभव है ? व्यक्तिरूप में जैन दर्शन अनेक या अनंत आत्मा स्वीकार करता है। अनंत कर्म बद्ध हैं, अनंत मुक्त हैं। मुक्त आत्मा, परमात्मा, ईश्वर या परमेश्वर कहे जाते हैं, जो एक नहीं अनेक हैं।
ईश्वर या परमेश्वर का तात्पर्य उस ऐश्वर्य को धारण करने से है, जो आत्मा के शुद्ध स्वरूप की समग्र अभिव्यक्ति के अनंतर नि:सीम, निर्विकल्प एवं निरुपम सुख आदि के रूप में प्रस्फुटित होता है।
दार्शनिक शब्दावली में उपर्युक्त विवेचन का सार-संक्षेप इस प्रकार है
मिथ्या दर्शन आदि में परिणत आत्मा 'बहिरात्मा है। सम्यक् दर्शन आदि में परिणत आत्मा | 'अंतरात्मा' है। केवलज्ञान आदि में परिणत आत्मा ‘परमात्मा' है।
'के क्षय, ग्यता के
स्थान का रहवें तक इन पाँच
मावस्था
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