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णमो सिद्धाणं पद समीक्षात्मक अनुशीलन
बहिरात्मा की प्रथम तीन गुणस्थानों में, अंतरात्मा की क्षीण मोहनीय तक, उत्तरवर्ती गुणस्थानों में तथा उनके आगे परमात्मा की स्थिति है । अभिव्यक्त रूप में जो बहिरात्मा है, शक्ति की अपेक्षा | से वह अंतरात्मा और परमात्मा भी है। अभिव्यक्ति की अपेक्षा से जो अंतरात्मा है, शक्ति की अपेक्षा से वह परमात्मा और अनुभूति पूर्वनय आधार पर बहिरात्मा भी है । व्यक्त रूप में जो परमात्मा है, अनुभूत पूर्वनय की अपेक्षा से वह बहिरात्मा और अंतरात्मा भी है ।
जैन दृष्टि से यह गुणस्थानों का विवेचन है । आत्मा, पुनर्जन्म, मोक्ष आदि में विश्वास करने वाले अन्य दर्शनों में भी आत्मा के अभ्युदय अथवा जीवन के अंतिम साध्य मोक्ष की ओर अग्रसर होने का | एक विकास क्रम अपनी-अपनी दृष्टि से स्वीकार किया गया है। यहाँ विभिन्न दर्शनों के एतद्विषयक विचारों को सार रूप में उपस्थित कर तुलनात्मक समीक्षा की जा रही है।
योगवासिष्ठ में आध्यात्मिक विकास पर चिंतन
योगवासिष्ठ वैदिक वाङ्मय के प्रमुख आध्यात्मिक ग्रंथों में है। इसमें वेदांत के सिद्धांतों का | मार्मिक विश्लेषण है। इसमें आध्यात्मिक दृष्टि से जीवन पर गहन चिन्तन किया गया है।
अनात्मा में- शारीरिक कलेवर में जो आत्म - बुद्धि रखता है, उसे जैन शास्त्रों में जिस प्रकार बहिरात्मा कहा गया है. लगभग वैसा ही वर्णन योगवासिष्ठ में प्राप्त है
" वह अज्ञ जिसके अंत:करण में अज्ञान भरा है, वह देह को ही आत्मा मानता है । उसके इंद्रिय रूप शत्रु मानो रोष युक्त होकर उसे अभिभूत कर लेते हैं। "
जैन शास्त्रों के अनुसार मोह मुख्य रूप से बंधन, संसार में आवागमन का जन्म-मरण का हेतु है। यही बात योगवासिष्ठकार ने दूसरे शब्दों में कही है- “अविद्या संसार है, बंध है । सर्वज्ञों ने उसी माया, मोह, तमस् आदि नाम कल्पित किए हैं।"
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जैन शास्त्रों में आत्मा के अभ्युदय के लिए ग्रंथि - भेद करना अति आवश्यक माना है। योगवासिष्ठ ने भी ऐसा ही माना है । वहाँ केवल अर्थ की समानता ही नहीं है किंतु शब्द भी समान हैं। उन्होंने ग्रंथि - भेद के स्थान पर ग्रंथि उच्छेद का प्रयोग किया है।
योगवासिष्ठ में वर्णित सम्यक् ज्ञान का लक्षण भी बहुत अंशों में जैन शास्त्र सम्मत है। "
१. योगवासिष्ठ निर्माण प्रकरण (पूर्वार्ध) अध्याय ६३.
२. योगवासिष्ठ उत्पत्ति प्रकरण, अध्याय-१ श्लोक-२०.
३. योगवासिष्ठ, उत्पत्ति प्रकरण, अध्याय- १८, श्लोक-२३. ४. योगवासिष्ठ, उत्पत्ति प्रकरण अध्याय ७९ श्लोक-२.
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