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________________ ती है, जिस हीं, पर ज्यों गती है । नेही पानी उभर आता बे हुए Fr ण करती पर बढ़ती ते हैं, वह 1. निवृत्त है । उसे हा जाता का नाम, - निवृत्त T सूक्ष्म दिए का यह णी से स्थान देर सिद्धत्व पर गुणस्थानमुलक सोपान कम नहीं लगती। ज्यों ही उभार आता है, उस पर आरूढ़ आत्माएँ नीचे गिर जाती हैं। यद्यपि यह मोह के उपशम की पराकाष्ठा की स्थिति है, किंतु उसके आगे आत्माएँ विकास की ओर बढ़ नहीं पातीं। ये अनिवार्य रूप में अंतर्मुहूर्त के पश्चात् अध:पतित होती हैं । ग्यारहवें गुणस्थान से पतन तो होता है और वह प्रथम गुणस्थान तक भी जा सकता है, किन्तु एक बार जो आत्मा इतने ऊँचे विकास को प्राप्त कर चुकी वह अध:पतित नहीं रहती। पुनः सद्वीर्य, सत्पराक्रम और सद् उत्साह के सहारे वह विकास पथ पर आरूढ़ होती है। वह मार्ग में आते हुए | | विभावात्मक शत्रुओं से संघर्ष करती हुई, उन्हें पराभूत करती हुई क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ हो जाती है, जहाँ से फिर पतन नहीं होता । १२. क्षीण मोह गुणस्थान बारहवाँ क्षीण मोह गुणस्थान है। जिसका मोह कर्म सर्वथा क्षीण हो जाता है, उसके यह गुणस्थान सिद्ध हो जाता है। पूर्व अवस्था में संज्वलन- लोभ का अस्तित्व नहीं मिटता। इस अवस्था में वह पूर्णरूप से नष्ट हो जाता है। आत्मा पूर्णतः वीतरागता प्राप्त कर लेती है। १३. सयोग केवली गुणस्थान तेरहवाँ सयोग केवली गुणस्थान है। आत्मा के मूल गुणों का घात करने वाले मुख्यतः शत्रुघाति कर्मों का इसमें सर्वथा नाश हो जाता है। उसके परिणामस्वरूप आत्मा अनुपम शांति, सुख, ज्ञान, चारित्र, दूसरे शब्दों में निरतिशय आध्यात्मिक साम्राज्य प्राप्त कर लेती है कैवल्य के आवरकआवरण करने वाले समस्त कर्माणु अपगत हो जाते हैं। आत्मा सर्वज्ञ, सर्वदर्शी बन जाती है । इस गुणस्थान 'को सयोग केवली कहे जाने का कारण यह है कि कैवल्य प्राप्त आत्मा में मानसिक, वाचिक तथा कायिक प्रवृत्तिरूप योग व्याप्त रहता है। मोक्षरूपी लक्ष्य को स्वायत्त करने हेतु आत्मा | को उसका भी अपाकरण या नाश करना होता है । वह सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाति शुक्ल- ध्यान का आश्रय लेकर मन, वचन, काय के व्यापारों को सर्वथा निरुद्ध कर देती है, उसे अयोगावस्था प्राप्त हो जाती है । १४. अयोग केवली गुणस्थान अयोगावस्था की प्राप्ति आध्यात्मिक विकास की पराकाष्ठा या अंतिम मंजिल है। इसमें मानसिक, | वाचिक एवं कायिक प्रवृत्ति रूप योग सर्वधा निर्मूल हो जाते हैं, इसलिए इसे अयोग केवली गुणस्थान के नाम से अभिहित किया गया है । 337
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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