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णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक अनुशीलन
सम्यक्त्व होने पर ही तत्त्व श्रद्धान होता है। तत्त्व श्रद्धान होने पर ही सम्यक्त्व होता है, इस प्रकार जो कहा जाता है, वहाँ कार्य में कारण का उपचार है।
सम्यक्त्व आत्म-विकास का चौथा सोपान है। शास्त्रीय भाषा में यह चौथा गुणस्थान है। इसे अविरित सम्यक् दृष्टि गुणस्थान कहा जाता है। इस स्थिति को प्राप्त व्यक्ति की अपनी दृष्टि परिमार्जित होती है, सत्-असत् की यथार्थ पहचान उसे हो जाती है, पर वह अंशत: भी विरत नहीं होता।
२. सास्वादन-सम्यक्-दृष्टि गुणस्थान
प्रथम और चतुर्थ गुणस्थान के मध्य सास्वादन-सम्यक्-दृष्टि दूसरा तथा सम्यक्-मिथ्या-दृष्टि या मिश्र दृष्टि तीसरा- ये दो गुणस्थान हैं। सास्वादन-सम्यक्-दृष्टि गुणस्थान वह है, जहाँ सम्यक् दर्शन का कुछ आस्वाद सा रहता है, यथावत् अनुभूति नहीं होती है। यह अवक्रांति- नीचे गिरने के समय की आत्म-स्थिति है। आत्मा के परिणामों में शिथिलता आ जाने के कारण जब उसका पतन होता है तो वह पुन: मिथ्यात्व में गिरने लगती है। तब अंतर्वर्ती-मध्यवर्ती अर्थात् उच्च गुणस्थान से प्रच्युति और मिथ्यात्व में स्थिति के बीच की दशा वह दशा है, जिसमें मिथ्यात्व की अनुभति प्रारंभ नहीं हुई। है और सम्यक्त्व का भी यथावत् अनुभव नहीं है, किंतु सम्यक्त्व की एक हलकी सी अनुभूति आत्मा में विद्यमान रहती है। । उदाहरणार्थ-- एक वृक्ष से फल नीचे गिरा। जब तक वह पृथ्वी को नहीं छूता, उसकी तब तक की अंतरालवर्तिनी-बीच की दशा से इस गुणस्थान को उपमित किया जा सकता है। फल न तो पृथ्वी पर है और न वृक्ष पर। उसी प्रकार गिरने वाली आत्मा न ऊपर के गुणस्थान में और न नीचे के मिथ्यात्व गुणस्थान में है। बीच की दशा परिणाम शून्य तो नहीं हो सकती। आत्मा में निरंतर परिणामों की धारा चलती रहती है। पतनोन्मुख आत्मा में विलुप्त होते सम्यक्त्व की एक विलक्षण सी अनुभूति रहती है।
जैन जगत् के महान् विद्वान् पंडित सुखलालजी संघवी ने इसे एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हुए समझाया है। खीर आदि मिष्ट भोजन करने के बाद जब वमन हो जाता है, तब मुख में एक प्रकार का विलक्षण स्वाद अर्थात् न मधुर, न अति आम्ल जैसा प्रतीत होता है। उसी प्रकार दूसरे गुणस्थान के समय विलक्षण आध्यात्मिक स्थिति पायी जाती है, क्योंकि उस समय आत्मा न तो तत्त्व-ज्ञान की निश्चित भूमिका पर है, न ही तत्त्वज्ञान-शून्य की निश्चित भूमिका पर, अथवा जैसे कोई व्यक्ति चढ़ने की सीढ़ियों से खिसक कर, जब तक जमीन पर आकर नहीं ठहर जाता, तब तक बीच में एक विलक्षण अवस्था का अनुभव करता है, वैसे ही सम्यक्त्व से गिरकर मिथ्यात्व को पाने तक में अर्थात् बीच में
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