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________________ सिद्धत्व-पथराणस्थानमूलक सापान क्रम । इसे दृष्टि त नहीं आत्मा एक विलक्षण आध्यात्मिक अवस्था का अनुभव करती है। यह बात हमारे इस व्यावहारिक अनभव से भी प्रसिद्ध है कि जब निश्चित उन्नत अवस्था से गिर कर कोई निश्चित अवनत अवस्था प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक बीच में एक विलक्षण परिस्थिति विद्यमान रहती है। यद्यपि यह दूसरा गुणस्थान है। मिथ्यात्व से इसकी श्रेणी ऊँची है, इसमें अंशत: सम्यक्त्व एक हलकी सी व्याप्ति रहती है, किंतु यह पतनावस्था से संबद्ध है। मिथ्यात्व उत्थान से जुड़ा है, क्यों कि मिथ्यात्व से सम्यक्त्व की ओर बढ़ती आत्मा को इस पर रुकना नहीं पड़ता, इसे वह लांघ जाती है। केवल गिरती हुई आत्मा इसका संस्पर्श करती हुई मिथ्यात्व में आती है। | आत्मा के परिणामों में ज्यों ही मोह का उभार आता है, त्यों ही जीव अपने उन्नत स्थान से च्युत हो जाता है। इस गुणस्थान की यही स्थिति है। इसमें तीन मोहात्मक कषाय सशक्त रहता है, जो विकास की दृष्टि से उच्च स्थान पर पहुँचे हए जीव को वहाँ से नीचे धकेल देता है। ष्ट या दर्शन समय च्युति में हुई आत्मा तिक पृथ्वी चे के ३. मिश्र-गुणस्थान तीसरा सम्यक्-मिथ्या दृष्टि या मिश्र-गुणस्थान है। यह आत्मा की श्रद्धान के विषय में दोलायमान- हिलती हुई सी स्थिति है। न इसमें सत् तत्त्व पर संपूर्णत: आस्था होती है और न अनास्था ही। आत्मा में एक संशययुक्त स्थिति बनी रहती है। परिणाम-स्वरूप न वह तत्त्व को संपूर्णत: अतत्त्व रूप में स्वीकार करती है और न तत्त्व-अतत्त्व में कोई भेद-रेखा ही खीच पाती है। आत्मा की अवक्रांति और उत्क्रांति- दोनों में यह गुणस्थान आ सकता है। | मिथ्यात्व का आवरण चीर कर सम्यक्त्व की ओर बढ़ने में तत्पर आत्मा ज्यों ही अग्रसर होना चाहती है, दर्शन-मोह का बंधन, जो टूटा नहीं है, केवल कुछ शिथिल सा हुआ है, उसे संपूर्ण रूप में वैसा नहीं करने देता। यों प्रथम गुणस्थान से आत्मा का सीधे तृतीय-गुणस्थान में प्रवेश होता है। यदि परिणाम विशुद्ध होते जाएं , बाधक कर्म पुद्गलों का अपचय- नाश होता जाए तो आत्मा विकास की ओर बढ़ने लगती है । तृतीय गुणस्थान से उसका उत्तरोत्तर अग्रगमन होता जाता है, यह उत्क्रांति की स्थिति है। जीव चतुर्थ या उससे उच्चतर किसी गुणस्थान में स्थित है। परिणामों में कलुषता आती है। स्थिरता टूट जाती है। पतन आरंभ हो जाता है। ऊपर से लुढ़कता हुआ वह जीव, जिसकी स्थिति सम्यक्त्व से पराङ्मुख तथा मिथ्यात्व की ओर उन्मुख है, तृतीय गुणस्थान में भी टिक सकता है। तब परंतर पसी कार थान बढ़ने क्षण १. दर्शन और चिंतन, खंड-२, पृष्ठ : २७३. 331
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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