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सिद्धत्व-पथ: गणस्थानमूलक सोपान-क्रम
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मोड ले लेती है। अपने दैनंदिन कार्यों में संलग्न रहते हुए भी साधक का चित्त मोक्ष पर टिका रहता है। वह कर्तव्यवश लौकिक कार्य करता रहता है, किंतु उनमें वह रस नहीं लेता।
एक ओर उसका चिंतन सांसारिक बंधनों से आत्मा के छूटने के संबंध में चलता है तथा दूसरी ओर धर्मानुष्ठान में बहु तत्पर रहता है। जब तक प्रकृति गतिशील रहती है, तब तक निवृत्ति या निवत्तिमय संयममूलक धर्म जीवन में घटित नहीं होता। जैसे-जैसे प्रकृति का पुरुष से वियोग घटित होता जाता है, वैसे-वैसे मन निर्मल बनता जाता है। उसके अनुसार ही चिंतन-मनन गतिशील होता है।
यहाँ प्रयुक्त प्रकृति और पुरुष' शब्द सांख्य दर्शन से संबद्ध हैं। सांख्य दर्शन में आत्मा को पुरुष कहा जाता है। आत्मा के अतिरिक्त अन्य जागतिक स्थिति प्रकृति का विस्तार है। पुरुष चेतनामय है, प्रकृति जड़ है।
चिंतन-मनन के परिणामस्वरूप भावात्मक स्थिरता आती है। उससे देदीप्यमान रत्न के समान अंतरात्मा में सत्व-संपृक्त अंर्तज्योति उद्भासित होती है, मन प्रशांत होता है, साधक के जीवन में सदा शुद्ध अनुष्ठान उल्लसित होता है।' सम्यक्त्व और सम्यक् दर्शन
सम्यक्त्व और सम्यक् दर्शन औपचारिक दृष्टि से एक ही अर्थ में प्रयुक त्त होते हैं। तत्त्वत: उनमें कार्य-कारण-भाव संबंध है। अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ तथा सम्यक्त्वमोहनीय, मिथ्यात्वमोहनीय एवं सम्यक्त्व-मिथ्यात्व-मोहनीय के अपगम से आत्मा में एक प्रकार का शुद्ध परिणमन उत्पन्न होता है, वह सम्यक्त्व है, जो आभ्यंतर दर्शन, अंतर्मुख्यत्व या अंतरात्मभाव का हेतु है। आत्मा का वह शुद्ध परिणमन उन मोहात्मक परमाणुओं की प्रतिरोधक शक्ति का भी काम करता है, जो आत्मा की सत्य के प्रति आस्था होने की क्षमता को विकृत करने के लिए तत्पर रहते हैं। ___ यथार्थ दर्शन, अविपरीत दर्शन, यथार्थ-तत्त्व-श्रद्धान, सही दष्टि, सत्याभिमुखता, सत्यरुचि यथावस्थित-वस्तु-परिज्ञान तथा अभिनिवेश- सत्त्व में आस्था आदि सम्यक् दर्शन के अभिव्यंजक शब्द हैं। सम्यक्त्व कारण है, सम्यक् दर्शन कार्य है।
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१. (क) सांख्यकारिका, कारिका-३. २. (क) सांख्यकारिका, कारिका-१७. |३. जैनयोग ग्रंथ-चतुष्टय : योगबिंदु, श्लोक-२०५-२०९.
(ख) सर्वदर्शन संग्रह, पृष्ठ : ६१८. (ख) सर्वदर्शन संग्रह, पृष्ठ : ६२८.
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