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________________ सिद्धत्व-पथ : गुणस्थानमूलक सोपान-क्रम भिहित धर्म को भवन या प्रासाद की उपमा दी जा सकती है। धर्म रूपी प्रासाद की नींव सम्यक्त्व है। सम्यक्त्व की नींव पर प्रतिष्ठित धर्म रूपी प्रासाद सदैव सुदढ़ रहता है, उसे उन्नततर बनाया जा सकता है। ष्ट हो निष्ट और खा, आधार-भावना आधार का अर्थ यहाँ प्रकोष्ठ या कोठा है, जिसमें किराने का सामान रखा जाता है। कोठा जितना स्वच्छ, सदढ़ और मजबूत होता है, उसमें रखी गई सामग्री उतनी ही सुरक्षित रहती है। उसे चूहे नहीं काट सकते। चोर आदि उसे चुरा नहीं सकते। सम्यक्त्व को आधार या कोठे की उपमा दी जाती हैं। धर्म उसमें रखा जाने वाला किराना या सामग्री है। मिथ्यात्व को चहे की उपमा दी जाती है और विषय-कषाय को चोरों की उपमा दी जाती है। यदि सम्यक्त्व रूपी प्रकोष्ठ अत्यंत दढ हो तो मिथ्यात्व रूपी चहों तथा विषय-कषाय रूपी चोरों का उपद्रव नहीं हो सकता। उसमें जरा भी विकार नहीं आ सकता। सम्यक्त्वी सदा इस चिंतन से अनुप्राणित रहे। सकी होता हता के भाजन-भावना भाजन का अर्थ पात्र या बर्तन है। धर्म को भोजन की उपमा दी जाती है और सम्यक्त्व को भाजन या पात्र की उपमा दी जाती है। उत्तम रसायन, भोजन आदि उत्तम भाजन या पात्र में ही टिकते हैं। धर्म रूपी उत्तम भोजन के लिए सम्यक्त्व रूपी स्वच्छ, निर्मल, निर्दोष और सुदृढ़ पात्र की आवश्यकता है। पात्र उत्तम होगा तो उसमें श्रेष्ठ भोजन टिक पाएगा। लोक में यह प्रसिद्ध है कि सिंहनी का दूध सोने के पात्र में ही टिक सकता है। सम्यक्त्व का आधार धर्म के टिकाव या स्थिरता के लिए परम आवश्यक है। वस्तु कितनी ही उत्तम क्यों न हो, यदि उसे सुरक्षित रखने का भाजन- पात्र नहीं है तो उसे कहाँ रखा जा सकेगा? भाजन की नितांत आवश्यकता है। धर्म की स्थिरतापूर्वक अनुपालना, साधना के लिए सम्यक्त्व अनिवार्य है। ६. निधि-भावना धर्म एक अमूल्य रत्न है। सम्यक्त्व एक निधान है। जैसे संसार में बहुमूल्य रत्नों को रखने के लिए उत्तम मंजूषा एवं तिजौरी की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार धर्म की सुरक्षा के लिए सम्यक्त्व रूपी तिजौरी परम आवश्यक है। वैसा होने से काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि चोर धर्माराधना रूपी बहुमूल्य रत्न को चुराने में सक्षम नहीं होते, क्योंकि सम्यक्त्व रूपी तिजौरी यदि बहुत मजबूत हो तो उसे चोर तोड़ नहीं सकते।' १. जिणधम्मो, पृष्ठ : ११७-११८. 325
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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