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________________ HAAR णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक अनुशीलन सम्यक्त्वी की दृढ़ता, निर्मलता, पवित्रता बनाए रखने हेतु छ: भावनाएं शास्त्रकारों ने अभिहित की हैं। संक्षेप में उनका यहाँ वर्णन किया जा रहा है। सम्या सकत स्वच्छ काट धर्म विषय १. मूल-भावना धर्मरूपी पादप का मूल सम्यक्त्व है- 'छिन्नेमूले नैव शाखा न पत्रम् - मूल यदि छिन्न- नष्ट हो जाए तो वृक्ष की न तो शाखाएँ हरी-भरी रह सकती है और न पत्ते ही। सब सूख जाते हैं। वृक्ष नष्ट हो जाता है। यही स्थिति धर्म और सम्यक्त्व के संबंध में है। यदि सम्यक्त्व नष्ट हो जाय तो धर्म और आध्यात्मिक साधना सब कुछ मिट जाते हैं। यदि वृक्ष का मूल सुदृढ़ होता है तो वृक्ष, शाखा, प्रशाखा, पत्र, पुष्प सब विकसित होते रहते हैं। सम्यक्त्वी साधक सदैव ऐसा चिंतन करता रहे कि उसका सम्यक्त्व, उसकी सत्यनिष्ठा, उसकी तात्त्विक आस्था सदैव अचल, स्थिर बनी रहे। पुन:-पुन: ऐसा विचार करने से आत्मबल जागरित होता है। जिस वृक्ष की जड़ मजबूत होती है, वह हवा, तूफान, आँधी आदि से आहत होकर भी टिका रहता है। इसी प्रकार जिसका सम्यक्त्व दृढ़ होता है, वह धर्माराधना में विघ्नों, बाधाओं और आपदाओं के आने पर भी धर्म के पथ से विचलित नहीं होता। जैसे हरा-भरा, फला-फूला वृक्ष छाया द्वारा पथिकों का संताप मिटाता है, उसी प्रकार सुदृढ़ सम्यक्त्व के मूल पर अवस्थित धर्म रूपी पादप सांसारिक संताप एवं क्लेश से उद्विग्न और व्यथित लोगों को शांति प्रदान करता है। रूपी सकत भाजन टिकते आवश् सिंहन उत्तम भाजन अनिव २. द्वार-भावना | धर्म को यदि एक नगर की उपमा दी जाए तो सम्यक्त्व को उसके द्वार की उपमा दी जा सकती है। किसी नगर में प्रविष्ट होने के लिए द्वार की आवश्यकता होती है। यदि नगर के द्वार न हों, चारों ओर परकोटा हो तो कोई भी उसमें प्रवेश नहीं कर सकता और नगर में से कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकता। यही बात सम्यक्त्व के साथ लागू हो सकती है। यदि सम्यक्त्व न हो तो धर्म की आराधना नहीं हो सकती। धर्म द्वारा जो आध्यात्मिक विभूति, शांति प्राप्य है, वह प्राप्त नहीं हो सकती। सम्यक्त्वी निरंतर इस भाव से अनुभावित रहे। ३. प्रतिष्ठा-भावना प्रतिष्ठान का अर्थ यहाँ नींव है। कोई भी भवन निर्मित होता है तो पहले उसकी नींव डाली जाती है। वह सुदृढ़ और पक्की की जाती है। फिर उस पर भवन का निर्माण होता है। सुदढ़ नींव पर चाहे कितनी ही मंजिलें बनाईं जाएं तो भी कोई भय नहीं रहता। लिए रूपी बहुम उसे 324 HE
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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