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सिद्धत्व-पथ : गुणस्थानमूलक सोपान-क्रम
न, स्पंदन
९. यतना के छः रूप
है, उसे है। जिस मा दोनों
यतना का अभिप्राय सावधानी या जागरूकता है। सद् वस्तु प्राप्त हो तो उसे सुरक्षित रखने के लिए मनष्य को सावधान रहना पड़ता है। सम्यक्त्व आध्यात्मिक दृष्टि से एक अमूल्य रत्न है। उसकी कीमत नहीं आंकी जा सकती, उसका प्राप्त होना बड़ा दुर्लभ है। इसलिए सम्यक्त्वी हर समय अपने प्रत्येक कार्य में जागरूक रहता है कि उसके सम्यक्त्व में जरा भी कमी न आए।
१. वंदना, २. नमस्कार, ३. आलाप, ४. संलाप, ५. दान और ६. मान के रूप में यतना के छ: प्रकार बतलाए गए हैं।
धर्म के निवार्य
१. वंदना
वंदना का तात्पर्य गुण-स्तवना या प्रशंसा से है। सम्यक्त्वी उन पुरुषों के गुणों की प्रशंसा या श्लाघा करे, जो सम्यक्त्व से युक्त हैं । सम्यक्त्व विहीन जनों का संस्तवन या गुणानुवाद सम्यक्त्वी नहीं करता।
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२. नमस्कार
सम्यक्त्वी उन्हें नमस्कार करे, जो आध्यात्मिक दृष्टि से सम्यक् दृष्टि हों, चारित्र आदि गुणों से उत्कृष्ट हों, सम्यक्त्व विहीन देवों और पुरुषों को धार्मिक दृष्टि से नमन न करे। __ सांसारिक या व्यावहारिक दृष्टि से नमन करना अनुचित नहीं है किंतु गुरुत्व, पूज्यत्व, या श्रद्धेयत्व भाव से यहाँ सम्यक्त्वी जनों को नमस्कार करने और मिथ्यात्वी को नमस्कार न करने का विधान है। सम्यक्त्व की पवित्रता के लिए यह आवश्यक है।
करुणा
३. आलाप
इसका तात्पर्य वार्तालाप या बातचीत है। बोलने में या किसी के साथ वचनमूलक संबंध जोड़ने में सम्यक्त्वी सदैव जागरूक रहता है। वह सम्यक्त्वी पुरुषों से ही रुचिपूर्वक वार्तालाप करें। सम्यक्त्वहीन पुरुषों से यथासंभव वचनमूलक संबंध न जोड़े।
४. संलाप ___सामान्य वार्तालाप को आलाप कहा जाता है तथा विशेष रूप से जो वार्तालाप किया जाता है, उसे संलाप कहा जाता है। विशेष वार्तालाप से पारस्परिक घनिष्ठता बढ़ती है, इसलिए सम्यक्त्वी के लिए यह विधान है कि वह सम्यक दृष्टि व्यक्तियों के साथ ही संलाप करे। धर्म, सदाचार, नीति, कर्तव्य आदि विषयों में उनके साथ चर्चा करे, उनका कुशलक्षेम पूछे, इससे गुणीजनों के साथ उसका संपर्क
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