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णमा सिद्धाण पद: समीक्षात्मक अनशीलन
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'अनुकूलं कंपनं अनुकंपा'- किसी प्राणी को दुःखित, पीड़ित देखकर तदनुरूप मन में कंपन, स्पं होना अनुकंपा है।
अनुकंपा उभयपक्षी हितावह है। दु:खी को देखकर किसी के मन में दुःखात्मक कंपन होता है, शांत करने के लिए वह दु:खी प्राणी पर दया करता है, इससे उसके मन में शांति उत्पन्न होती है। जि पर दया की जाती है, वह भी दु:ख या पीड़ा से छूटने पर सुखी होता है। इस प्रकार अनुकंपा दो के लिये उपकारक होती है। विशेष
अनुकंपा, दया या करुणा का प्रभाव प्राय: सभी धर्मों में स्वीकार किया गया है। बौद्ध धर्म महायान संप्रदाय में तो करुणा का अत्यंत विकास हुआ है। वहाँ निर्वाण के लिए करुणा को अनिवार माना गया है। सार रूप में महाशून्य एवं महाकरुणा- ये दो तत्त्व बौद्ध धर्म में स्वीकृत हैं। __ जिस प्रकार एक माता कष्ट में पड़े हुए अपने शिशु को बचाने हेतु प्राणपण से जुट जाती है, उसे बचाने में अपना जीवन भी समाप्त हो जाए तो भी वह उसकी चिंता नहीं करती। जब किसी भी परिचित, अपरिचित, दु:खी व्यक्ति के प्रति मनुष्य के मन में इस प्रकार की करुणा उत्पन्न होती है, तब उसे महाकरुणा कहा जाता है।
महाकरुणा को साध लेने पर ही महाशून्य या निर्वाण तत्त्व का साक्षात्कार किया जा सकता है। इस प्रकार महाकरुणा महायान की साधना में अपना सर्वोपरि स्थान रखती है।
जैन धर्म में तो इसका महत्त्व है ही। एक सम्यक्त्वी साधक के व्यक्तित्व में सहजरूप से करुणा का स्रोत फूट पड़ता है।
५. आस्तिक्य- आस्था
आस्तिक्य शब्द आस्तिक से बना है। आस्तिक उसे कहा जाता है, जो आत्मा, परमात्मा, स्वर्ग, नरक, पुण्य, पाप, आदि में श्रद्धा या विश्वास रखता है। जो इहलोक और परलोक दोनों को मानता - हैं। इहलौकिक, पारलौकिक कर्मों में विश्वास करता है। आस्तिक्य में इन सब गुणों का समावेश है।
जिसके जीवन में सत् तत्त्व के प्रति आस्था नहीं होती, उसके जीवन में धर्म, साधना, आदि सद्गुण टिक नहीं सकते। आस्थाविहीन पुरुष अपना कार्य या लक्ष्य सिद्ध नहीं कर सकता। आस्था होने पर ही भावना का उदय होता है। भावना से धर्मोद्योत होता है। धर्माराधना में व्यक्ति रस लेता है। सम्यक्त्वी में आस्तिकता विशेष रूप से समुदित रहती है। इसलिए इसे सम्यक्त्व का लक्षण कहा है। १. जिणधम्मो, पृष्ठ : ११४, ११५.
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