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शब्द के
अर्थ में
विनय,
-विनय,
आती
ल्याण
नहीं
होती
(4)
१०)
६. कुल-विनय
एक गुरु द्वारा दीक्षा प्रदान किए गए साधुओं के समुदाय को कुल कहा जाता है। कुल विनय ऐसे समुदाय के प्रति विनयशीलता का सूचक है।
-
७. गण- विनय
एक आचार्य के विनय, गण- विनय है ।
अनुशासन
सिद्ध-पथ: गुणस्थानमूलक सोपान क्रम
में विद्यमान साधु समुदाय गण कहा जाता है। उसके प्रति होने वाला
८. संघ-विनय
श्रमण-श्रमणी श्रमणोपासक - श्रमणोपासिका - समुदाय चतुर्विध संघ कहा जाता है। उसे धर्म-तीर्थ भी कहा जाता है। उसके प्रति विनय रखना, संघ-विनय है
९. स्वधर्मी विनय
जिनका श्रुत चारित्र मूलक धर्म या संयम साधना-पथ एक समान हो, वे स्वधर्मी कहलाते हैं। उनके प्रति किया जाने वाला विनय, स्वधर्मी विनय है।
१०. क्रियाचान् विनय
जिनेश्वर देव द्वारा प्रतिपादित धार्मिक सिद्धांतों पर जो श्रद्धाशील हों, सम्यक्त्व युक्त हों, चारित्रशील हों, वैसे पुरुषों के प्रति विनय शील रहना, क्रियावान-विनय है ।
विनय के ये जो दस भेद किए गए हैं, उनका संबंध मुख्य रूप से ज्ञान एवं चारित्र के साथ है, जो धर्म के प्रमुखतम आधार हैं, मोक्ष के हेतु हैं।
४. शुद्धि
कोई भी वस्तु प्राप्त हो जाए तो उसको भलीभाँति संभाल कर रखना आवश्यक होता है, क्योंकि वैसा किए बिना वह वस्तु विकृत या अशुद्ध हो सकती है। जो वस्तु जितनी बहुमूल्य होगी, उसको । उतनी ही अधिक सावधानी से सुरक्षित रखना पड़ता है। इस दृष्टि से सम्यक्त्व की शुद्धि के तीन रूप - १. मन की शुद्धि, २. वाणी की शुद्धि और ३. शरीर की शुद्धि मन द्वारा वचन द्वारा और शरीर द्वारा देव, गुरु एवं धर्म के प्रति स्थिर निष्ठा या आस्था बनाए रखना सम्यक्त्वी का कर्तव्य है । वचन और शरीर शुद्ध हैं, किंतु यदि मन शुद्ध नहीं है तो उसकी अशुद्धता का वचन और शरीर पर भी प्रभाव पड़ेगा। इसी प्रकार वचन शुद्धि और शरीर शुद्धि का प्रभाव भी मन शुद्धि पर पड़ता है। इसलिए ये १. जिणधम्मो पृष्ठ : १०८.
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