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णमो सिद्धाण पद: समीक्षात्मक अनशीलन।
तीनों सर्वथा शुद्ध, निर्दोष या निर्विकार रहें। एक सम्यक्त्वी साधक को इस दिशा में पूरी तरह जागरू रहना अपेक्षित है।
५. दूषण-त्याग
जैसे वात, पित्त एवं कफ आदि दोषों से देह में रोग उत्पन्न हो जाते हैं, वैसे ही कुछ ऐसे दो हैं, जो सम्यक्त्व को दूषित करते हैं। उनसे बचने के लिए साधक को सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिए । शंका, काक्षा, विचिकित्सा, मिथ्या-दृष्टि-प्रशंसा तथा मिथ्या-दृष्टि-संस्तव- सम्यक्त्व को दूषित करने वाले ये पाँच दोष हैं।
१. शंका
सर्वज्ञ जिनेश्वर प्रभु द्वारा जो प्रतिपादित किए गए तत्त्व हैं, उनकी यथार्थता या सत्यता में संदेह करना सम्यक्त्व का पहला दोष है। सम्यक्त्वी को चाहिए कि वीतराग भाषित तत्त्वों में वह कभी किसी तरह का संशय या संदेह न करे। मानव से ऐसी भूल होना संभावित है। इसलिए स्पष्ट रूप में यहाँ शंका न करने का संकेत किया गया है।
२. कांक्षा
कांक्षा का अर्थ इच्छा या आकांक्षा है। सम्यक्त्वी को चाहिये कि वह उन पुरुषों द्वारा जो सर्वज्ञ नहीं है, जो राग-द्वेष आदि दोषों से युक्त हैं, बतलाए गए मतों की आकांक्षा न करे। उन्हें स्वीकार कर लेने की इच्छा तक मन में न लाए।
३. विचिकित्सा
विचिकित्सा का अर्थ संदेह या अविश्वास है। जैसे कोई साधक लम्बे समय से धार्मिक क्रिया कर रहा हो, वह कभी सोचे कि वैसा करते हुए उसको कितना लम्बा समय हो गया, फिर भी कोई फल प्राप्त नहीं हो रहा है। आगे भी कोई फल मिलेगा या नहीं ? कहीं मैं धर्माराधना करता हुआ भूल तो नहीं कर रहा हूँ ? इस प्रकार के विचारों को मन में लाना विचिकित्सा है। सम्यक्त्वी अपने मन में ऐसे विचार कभी भी न आने दे।
४. मिथ्या-दृष्टि-प्रशंसा तथा ५. मिथ्या-दृष्टि-संस्तव का अर्थ स्पष्ट ही है।
६. प्रभावना
मनुष्य को यदि उत्तम वस्तु प्राप्त हो तो उसे चाहिए कि वह दूसरों को भी उससे लाभान्वित करे। सम्यक्त्व एक बहुमूल्य आध्यात्मिक रत्न है, अत: उसका तथा जिनेंद्र भगवान् के शासन का प्रभाव
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