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णमोसिद्धाण पद: समीक्षात्मक अनशीलन
उत्तराध्ययन-सूत्र का पहला अध्ययन विनयश्रुत या विनयसूत्र नाम से प्रसिद्ध है। विनय शब्द के नम्रता, आचार एवं अनुशासन ये तीन अर्थ हैं।
उत्तराध्ययन-सूत्र के प्रथम अध्ययन में विनय शब्द श्रमणों के आचार एवं अनुशासन के अर्थ में मुख्य रूप में प्रयुक्त हुआ है।
ठाणांग-सूत्र में सात प्रकार के विनय का उल्लेख हुआ है, वे इस प्रकार हैं-- (१) ज्ञान- विनय, (२) दर्शन-विनय, (३) चारित्र-विनय, (४) मन-विनय, (५) वचन-विनय, (६) काय-विनय, (७) लोकोपचार-विनय । औपपातिक सूत्र में भी विनय के इन्हीं सात भेदों का वर्णन आया है।
विद्या ददाति विनयम्, विनयात् याति पात्रताम् । संस्कृत-साहित्य की यह सुप्रसिद्ध उक्ति है। विद्या विनय देती है तथा विनय से सत्पात्रता आती है। विद्या उस ज्ञान को कहा जाता है, जो 'सा विद्या या विमुक्तये' के अनुसार विमुक्ति- परमकल्याण का साधन बनती है।
सम्यक्त्वी पुरुष में विनय सहजगुण के रूप में प्रस्फुटित होता है। जो अभिमानी या अहंकारी नहीं होता, वही साधना के पथ पर अग्रसर हो सकता हैं। विनय से सम्यक्त्व की संपुष्टि और संप्रतीति होती है। विनय विशुद्ध आत्मभाव से किया जाता है, स्वार्थ से नहीं।
विनय के सामान्यत: दस भेद माने गए हैं
(१) अरिहंत-विनय, (२) सिद्ध-विनय, (३) आचार्य-विनय, (४) उपाध्याय-विनय, (५) स्थविर-विनय, (६) कुल-विनय, (७) गण-विनय, (८) संघ-विनय, (९) स्वधर्मी-विनय, (१०)। क्रियावान्-विनय।
इनमें प्रथम चार का अर्थ स्पष्ट है तथा शेष विनयों का क्रमानुसार विवेचन इस प्रकार है५. स्थविर-विनय
ज्ञान में उत्कृष्ट, चारित्र में बड़े तथा अवस्था में बड़े साधुओं के प्रति विनय करना, स्थविरविनय है।
१. स्थानांग-सूत्र, स्थान-७, सूत्र-१३०, पृष्ठ : ६१०. २. औपपातिक-सूत्र, सूत्र-३०, पृष्ठ : ४८.
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RANASI