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________________ णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक अनुशीलन १. मिथ्या-दृष्टि गुणस्थान आत्मा की सर्वाधिक निम्नावस्था मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व का अभिप्राय श्रद्धान की विपरीतता है। जो जैसा है, उसे वैसा न समझकर अन्यथा समझना मिथ्यात्व है। यह अविकास या निम्नावस्था की पराकाष्ठा है, किंतु ऐसा होते हुए भी वहाँ ज्ञात-अज्ञात रूप में आत्मा को अपना स्वरूप प्राप्त करने की उत्सुकता या तड़प अव्यक्त रूप में यत्किंचित् विद्यमान रहती है। इस अपेक्षा से इसे गुणस्थान कहा गया है। ग्रंथी-भेद पर्वत से निकलती हुई, बहती हुई नदी के साथ जैसे एक पत्थर का टुकड़ा लुढ़कता, घिसता, बहता चला आता है। उसे आकृति देने का किसी का कोई प्रयत्न नहीं होता, फिर भी अंतत: वह सुंदर, चिकना आकार पा लेता है। उसी की ज्यों, एक ऐसी अप्रयत्न-साध्य स्थिति आत्मा प्राप्त करती है, जहाँ राग-द्वेषात्मक ग्रंथि के शिथिलीकरण की दिशा में अन्त:स्फूर्ति उद्भव होती है। जैन दर्शन में इसे 'यथाप्रवृत्तकरण' कहा गया है। अपूर्वकरण । विशेषावश्यक भाष्य में लिखा है- आत्मा के प्रगाढ़ राग-द्वेषात्मक परणिामों से संपृक्त, कर्मजनित यह ग्रंथी बड़ी सघन, दृढ़ एवं घूली हुई गांठ की तरह दुर्भेद्य है। यदि इसका भेदन हो जाए तो सम्यक्त्वादि मोक्ष के साधनभूत गुण प्राप्त हो जाते हैं, पर वैसा होना अत्यंत दुर्लभ है। वहाँ प्रबल अध्यवसाय की आवश्यकता है। चित्त को अस्थिर, विचलित बनाने वाले अनेक विघ्न वहाँ आते रहते हैं। घोर संग्राम में लड़ते हुए योद्धा की तरह, जो वहाँ डट जाता है, वह कृत-कार्य या सफल हो सकता है। । वास्तव में यह एक भयावह संग्राम की स्थिति है। एक ओर राग-द्वेष अपना पूरा बल लगाए रहते हैं, दूसरी ओर विकासोन्मुख जीव अपने आत्म-बल एवं पराक्रम द्वारा उनकी भयानक मोर्चा-बंदी या व्यूह को तोड़ कर आगे बढ़ना चाहता है। स्वभाव और विभाव, श्रेयस् और अश्रेयस् के इस संग्राम में दृढ़ता के साथ युद्ध करता हुआ जीव विकारों को लांघकर ग्रंथी-भेद के समीप पहुँच जाता है। अपनी शक्ति को संभालता हुआ आगे बढ़ने में उद्यत रहता है, किंतु वह जीव, जो साहस छोड़ देता है, ग्रंथी-भेद के समीप पहुँचकर भी विकारों के आघात को सहन करने और उनका प्रतिकार करने में असमर्थ होता हुआ वापस अपने स्थान पर लौट १. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा-११९५-११९७. 306 PARINEET SHARDASTI SORT
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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