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परीतता है। नावस्था की प्राप्त करने
स्थान कहा
नता, बहता यह सुंदर सी है, जहाँ
नि में इसे
कर्मजाए तो
यहाँ प्रबल वहाँ आते
-कार्य या
ऋत
ए रहते
-बंदी या
आ जीव
गे बढ़ने
विकारों पर लौट
सिद्धत्व-पथ : गुणस्थानमूलक सोपान-क्रम
आता है । अनेक बार प्रयत्न करने पर भी वह विजय - लाभ नहीं कर पाता। एक वह जीव, जो इस संग्राम में लड़ता रहता है, जो न इतना कम साहसी है कि मैदान को छोड़कर भाग जाए और न इतना अधिक साहसी है, जो राग-द्वेष को पराजित कर दें । दीर्घकाल तक उस आध्यात्मिक संघर्ष में लगा रहता है।
आत्म-विकास की ज्योति प्राप्त करने हेतु आकुल, उत्सुक, आत्मा का शुद्धिमूलक प्रयत्न आ बढ़ता है। वृद्धि पाते हुए वीर्योल्लास या आत्म-पराक्रम द्वारा राग-द्वेष के दुर्ग को भग्न करती हुई आत्मा ग्रंथी-भेद के लिए अपने आप को सर्वतोभाव से संलग्न कर देती है। दर्शन की भाषा में इसे 'अपूर्वकरण' कहा जाता है । यह आत्मा के उन उज्ज्वल परिणामों की स्थिति है, जो इससे पूर्व कभी नहीं आई। अपूर्वकरण नाम का यही हेतु है। यह दुर्लभ किंतु अत्यंत वांछनीय स्थिति है, जिसे प्राप्त करने पर आत्म - विकास का भाव उद्घाटित हो जाता है ।
'लोक प्रकाश' में इस विषय को उदाहरण के साथ बहुत सुंदर रूप में समझाया है। तीन मनुष्य किसी बड़े नगर को जाना चाहते थे। यात्रा क्रम के मध्य वे एक जंगल में पहुँचे। वहाँ चोर थे, जिनके | कारण वह स्थान भयजनक था। वे मनुष्य शीघ्रता से चल रहे थे । इतने में दो चोर उन्हें दिखाई दिए । उन मनुष्यों में से एक भयभीत होकर वापस भाग उठा। दूसरे को उन चोरों ने पकड़ लिया। तीसरा पराक्रम द्वारा उन चोरों को पराभूत कर उस भयानक स्थान को लांघकर नगर में पहुँच गया।
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यह एक रूपक है। यात्रा पर निकले हुए मनुष्य जीव हैं। यह संसार जंगल है । कर्मों की स्थिति मार्ग है। ग्रंथी भयानक स्थान है । राग तथा द्वेष दो चोर हैं । दीर्घ स्थिति-युक्त कर्मों से बद्धजीव जो ग्रंथी-भेद के समीप पहुँचकर भी विकारमय भाव के कारण फिर अपनी स्थिति में लौट जाता है, वह पहला मनुष्य है ।
रागादि से बाधित होता हुआ, जो न तो ग्रंथी को भेद पाता है और न वहाँ से लौटता ही है, वह जीव चोरों द्वारा पकड़े गए दूसरे मनुष्य की तरह है।
अपूर्वकरण द्वारा जो राग और द्वेष को मिटा कर उन्हें पराजित कर सम्यक्त्व प्राप्त कर लेता है, वह तीसरा मनुष्य है। वैसा मनुष्य अपने इष्ट स्थान पर पहुँच जाता है।
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विशेषावश्यक भाष्य में भी ऐसा ही रूपकमय चित्रण किया गया है। "
स्वर्णिम वेला
सम्यक्त्व - प्राप्ति जीवन का वह स्वर्णिम प्रसंग है, जिससे आत्मा के उत्थान का मार्ग प्रशस्त हो
१. लोक प्रकाश, प्रकाश - ३, गाथा - ६१९-६२५.
२. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा - १२११-१२१४.
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