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सिद्धत्व-पथ : राणस्थानमलक सोपान-क्रम
भव करते
करते हुए प- मोक्ष र करना व्याख्यात
जैन-परंपरा में गुणस्थानों की कल्पना की गई है, जो गहन चिंतनपूर्ण है, वे निम्नांकित हैं। (१) मिथ्या-दृष्टि
(२) सास्वादन-सम्यक्-दृष्टि (३) मिश्र (४) अविरत सम्यक्-दृष्टि (५) देश-विरति
(६) प्रमत्त संयत (७) अप्रमत्त संयत (८) निवृत्ति-बादर (९) अनिवृत्ति-बादर (१०) सूक्ष्म-सम्पराय (११) उपशांत-मोह (१२) क्षीण-मोह (१३) सयोग केवली
(१४) अयोग केवली
आधार
आत्मा का मूल स्वरूप संपूर्ण शांतिमय, अव्याबाध सुखमय या आनंदमय है। सांसारिक आत्माओं में इसकी जो विपरीतता दिखाई देती है अर्थात् अशांतता या दु:खमयता प्रतीत होती है, उसका मुख्य कारण कषाय एवं आत्म-स्वरूप का कर्मों के आवरण से आच्छादित होना है।
थान का पत्मा की
त्तावस्था त्मिा की
| कार्मिक आवरण आठ भागों में विभक्त किए गए हैं, जो आत्मा की विभिन्न शक्तियों का अवरोध किए रहते हैं। इनमें मोहनीय सबसे प्रधान है। आत्मा के सत् श्रद्धान और सद् आचरण को विकृत किए रहने से वह मुख्यत: दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय इन दो भेदों में विभक्त है। __दर्शन यहाँ सत् श्रद्धान् या सम्यक् आस्था का वाचक है। जब तक दर्शनमोह दूर नहीं होता, सत् तत्त्वों के प्रति श्रद्धा, निष्ठा या विश्वास नहीं जमता, तब तक चारित्र। | मोहनीय के विकारक पद्गल भी नहीं हटते। वे आत्मा के सद् वीर्य या सत् पराक्रम को कार्यशील नहीं होने देते। गुणस्थानों की कल्पना मुख्यत: मोहनीय कर्म की विरतता एवं क्षीणता के आधार पर की गई है।
त्मिा
के
__ पहुँचने
शान्ति
रूप में गार पर
१. (क) धर्मामृत अणगार, अध्याय-४, पृष्ठ : २३६-२३८. (ख) जैन धर्म दर्शन, पृष्ठ : ४९२-५००.
(ग) भारतीय-दर्शन (बलदेव उपाध्याय), पृष्ठ : ११३, ११४. २. (क) पंचसंग्रह (प्राकृत अधिकार-१), गाथा-४, ५.
(ख) तत्त्वार्थ राजवार्तिक-भाग २, अध्याय-९, सूत्र-१-११, पृष्ठ : ५८८. (ग) गोमट्टसार (जीवकांड), सूत्र-९, १०, पृष्ठ : ३०. (घ) पंच संग्रह (संस्कृत-अधिकार-१), श्लोक-१५-१८. (इ) सर्वार्थ सिद्धि, अध्याय-१, सूत्र ८-३६, पृष्ठ : २२, २३. (च) तत्त्वसार, गाथा-५, ६, पृष्ठ : ३०.
(छ) जैन ज्ञान कोश (खंड-दूसरा), पृष्ठ : १५९. (ज) श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, भाग-५, पृष्ठ : ६३-९८. ३. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (द्वितीय पर्व), श्लोक-४६५-४७५, पृष्ठ : ८३, ८४.
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