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णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक अनुशीलन ।
उद्यत रहता है। अंतिम साध्य तक पहुँचने में अनेक विघ्न या बाधाएँ आती हैं। उनका पराभव करते हुए साधक को अपने साध्य की दिशा में निरंतर गतिशील रहना होता है। ___ जैसे किसी गगनचुंबी प्रासाद के ऊपर पहुँचने के लिए क्रमश: अनेक सोपानों को पार करते हुए उत्तरोत्तर अग्रसर होना होता है, उसी प्रकार जीवन के अंतिम, सर्वोच्च, सर्वातिशायी परमध्येय- मोक्ष या सिद्धत्व तक पहुँचने के लिए आत्मा को क्रमश: विकास के एक सोपान-मार्ग को पार करना होता है। जैन दर्शन में आत्मा के इस ऊर्ध्वगामी विकास-क्रम को गुणस्थान' के नाम से व्याख्यात किया गया है।
गुणस्थान का स्वरूप ___ जीवात्मा के ज्ञान, दर्शन, चारित्र गुण के विकास-हास की अवस्थाएं , श्रेणियाँ गुणस्थान हैं।
गुणस्थान में गुण+स्थान दो शब्द हैं। गुण का अर्थ ज्ञान, दर्शन, चारित्र से और स्थान का अभिप्राय अवस्था, स्थिति-विशेष अर्थात् कर्मों के उपशम, क्षयोपशम और क्षय से होने वाली आत्मा की विशिष्ट अवस्थाओं से है।
दूसरे शब्दों में आत्मा की अशुद्धतम अवस्था के परिहार से लेकर शुद्धतम दशा तक- मुक्तावस्था तक की विकास भूमिकाएँ गुणस्थान हैं। जैन दर्शन में इन्हें चौदह भागों में बांटा गया है। आत्मा की उत्तरोत्तर उन्नतिशील निर्मलता से गुणस्थान क्रमश: ऊँचे होते जाते हैं।
गुणस्थान आत्मा के गुण को, मूल स्वभाव या शक्ति को, जो कर्मों से आच्छादित है, आत्मा के पराक्रम, अध्यवसाय द्वारा प्राप्त करते जाने की क्रमिक उन्नत स्थितियाँ हैं।'
आत्मा की निम्नतम स्थिति से आगे बढ़ते-बढ़ते विकास की उच्चतम दशा या मोक्ष तक पहुँचने का बहुत ही सूक्ष्म, मार्मिक एवं मनोवैज्ञानिक विश्लेषण गुणस्थान के अंतर्गत किया गया है।
__ अंतिम गुणस्थान संपूर्णत: शुद्धावस्था है, जहाँ जीव शाश्वत, अनंत, अशेष, आनंद और शान्ति प्राप्त करता है।
गुणस्थान का विस्तार
यदि सूक्ष्मता में जाएं तो आत्मा की क्रमश: संजायमान विकास की श्रेणियों को निश्चित रूप में संख्याबद्ध नहीं किया जा सकता, पर उन विकास दशाओं की व्यक्त रूप में तरतमता के आधार पर
१. जैन धर्म दर्शन, पृष्ठ : ४९३.
२. मूलाचार (उत्तरार्द्ध), गाथा-९४२.
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