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सिद्धत्व-पथ : राणस्थानमूलक सोपान-क्रम
परमलक्ष्योन्मुखी उपक्रम
भारतीय परंपरा में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, जीवन के ये चार पुरुषार्थ स्वीकार किए गए हैं। मोक्ष इनमें अंतिम है। भारतीय चिंतन के अनुसार यह जीवन का उत्कृष्टतम या सर्वोत्तम विकास है। यह आत्मा की सहज अवस्था है। वह निरतिशय आनंदात्मक स्थिति है। उस आनंद से बढ़कर दूसरा कोई आनंद नहीं है।
मोक्ष का अर्थ छुटकारा या बंधन से मुक्ति है। वह बंधन क्या है ? उससे कैसे छूटा जा सकता है ? बंधे हुए और छूटे हुए की स्थिति में क्या अंतर हैं ? ये वे प्रश्न हैं, जिनके समाधान में भारतीय दर्शन की विभिन्न शाखाओं का विकास हुआ है। - जैन दर्शन और अद्वैत वेदांत के अनुसार जीव वस्तुत: आनंद-स्वरूप है, शुद्ध एवं बुद्ध है। दुःखात्मकता, अशुद्धता और अबुद्धता वास्तव में आत्मा का स्वभाव नहीं है, यह उसकी वैभाविक दशा है। इस दशा का क्या कारण है? इसकी व्याख्या में विभिन्न दर्शनों में कर्म, अविद्या, माया, अज्ञान आदि नामों से विश्लेषण किया गया है।
विभाव से हटकर पुन: स्वभाव में आने के पुरुषार्थ की प्रक्रिया या साधना की यात्रा भारतीय चिंतन-धारा की एक सर्वोत्कृष्ट उपलब्धि है।
जीव कब, किसी एक स्थिति से, किसी अन्य स्थिति में, कैसे पहुँचता है, पहुँचने का कैसा स्वरूप और विधिक्रम है ? इत्यादि अनेक तथ्यों का विवेचन उक्त प्रसंग में बहुत ही सुंदर, विशद और व्यापक रूप में प्राप्त होता है। अध:स्थित आत्मा के ऊर्ध्वगामी पराक्रम के परिणाम-स्वरूप विकास की विविध कोटियाँ उद्भूत होती हैं, जिनका परिसमापन आत्मा के शुद्ध-स्वरूप के पुन: अधिगम में है, जीवन के परम साध्य सिद्धत्व या मुक्तत्व की प्राप्ति में है।
। उस स्थिति- मोक्षावस्था या सिद्धावस्था तक पहुँचने का प्रमुख माध्यम, प्राय: सभी तात्त्विक धाराओं में आत्मा की उत्तरोत्तर सत्त्वोन्मुखी या स्वोन्मुखी विकासशीलता तथा उज्ज्वलता माना गया है। यह यकायक प्राप्त हो सके, ऐसा संभव नहीं है।
विकृतियों के साथ जूझता हुआ जीव अपने स्वाभाविक बल का आश्रय लिए हुए अग्रसर होने को
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