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________________ णमो सिद्धाणं पद समीक्षात्मक अनुशीलन आठ कर्मों का क्षय कर जो सिद्ध बने हैं तथा स्वाभविक, ज्ञान दर्शन की समृद्धि एवं सर्व अय की लब्धि से संपन्न, निष्पन्न हुए हैं, ऐसे वे सिद्ध परमात्मा शरणरूप है। सिद्ध का अर्थ पूर्ण है जो राग-द्वेष रूप शत्रुओं को जीत कर अरिहंत बन कर चौदहवें गुणस्थान की भूमिका को भी पार कर सदा के लिए जन्म-मरण से रहित होकर, शरीर और शरीर सबंधी सुख-दुःखों को लांघ कर, अनंत, एक रस आत्मस्वरूप में स्थित हो गए हैं, वे सिद्ध कहलाते हैं । सिद्ध- दशा मुक्त - दशा है । वहाँ आत्मा ही आत्मा है। वहाँ कर्म नहीं हैं और कर्म-बंधन के कारण भी नहीं हैं । अत एव वहाँ से लौट कर संसार में जन्म-मरण के चक्र में आना नहीं होता । " शुद्धनय के अनुसार सभी जीव स्वतः सिद्ध शुद्ध ज्ञान, दर्शन स्वभाव हैं।' वैराग्य भावना में श्री भक्तिविजयजी द्वारा किये गए विवेचन के अनुसार सिद्ध-चक्र की स्तुति में लिखा है कि नवपद का सदैव ध्यान करें। वहाँ मयणासुंदरी का उदाहरण दिया गया है । सिद्धाचल | तलहटी का भी वर्णन है ।" अहिंसा को निर्वाण की संज्ञा दी जाती है, क्योंकि यह निर्वाण अर्थात् मोक्ष का कारण होती है। अथवा यों कहे कि यह मोक्षदायिनी होती हैं।" सार-संक्षेप उपर्युक्त वर्णन से यह तथ्य प्रकाश में आता है कि सिद्धत्व वस्तुत: कहीं बाहर से नहीं आता । वह तो अपनी आत्मा में ही समवस्थित है जब आत्मा का 'स्व-भाव', 'पर-भाव की सघन परतों से आच्छादित रहता है, तब उसकी प्रतीति नहीं होती । जब तक यह अवस्था छूटती नहीं, तब तक | परमज्योतिर्मय आत्मा अज्ञान अंधकार से आवृत्त रहती है । उसे तथ्यातथ्य का विवेक नहीं होता । वह सत्य को गृहीत नहीं कर पाती, किन्तु जब सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप परमउज्ज्वल आध्यात्मिक रत्न उसे प्राप्त हो जाते हैं तो चिरकाल से व्याप्त अंधकार ध्वस्त हो जाता है। अंत:करण में आत्म-भाव की दिव्य लौ जल उठती है । जिसके द्वारा स्व और पर को, स्वभाव और विभाव को परखने की क्षमता आ जाती है। फिर विकास के पथ पर आगे बढ़ने में आत्मा को देर नहीं लगती। अंत:करण में शुद्धभाव जिस परिणाम में तीव्रता करते हैं, तदनुसार त्वरापूर्वक आत्मा की १. सिद्धशरण, पृष्ठ २०८. ३. कुंदकुंदाची तीन रत्ने, श्लोक - १. ५. जैन धर्म में अहिंसा, पृष्ठ : १७४. २. जैन अंगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास, पृष्ठ : १२९. ४. वैराग्य भावना, पृष्ठ : २४२. 301 प वि - 1 to 425 त वि प हो he अ वि
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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