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उत्तरवती जैन ग्रन्थों में सिद्ध-पद का निरूपण
सर्व अर्थों
चौदहवें
रीर और वे सिद्ध
हैं और में आना
स्तुति में द्धाचल
परिणामोन्मुखी यात्रा गतिशील रहती हैं। उसी की अंतिम मंजिल सिद्धावस्था है।
महान् ज्ञानियों ने, ग्रंथकारों ने इस भाव को अपनी-अपनी शैली में संक्षेप में प्रतिपादित किया है।
प्रस्तुत शोध-ग्रंथ के इस अध्याय में उस पर संक्षेप में प्रकाश डाला गया है, जिससे आगे इस | विषय पर विशद, विश्लेषणात्मक, समीक्षात्मक विवेचन करने में आधार रूप पृष्ठभूमि प्राप्त रहे।
जैन आगम वाङ्मय तथा तदनुस्यूत विपुल साहित्य, ज्ञान रूप दिव्य रत्नों का अक्षय भंडार है, | जिसमें जीवन के अनेक पक्षों का विस्तृत विवेचन हुआ है। उसका लक्ष्य आत्मस्वरूपावबोध तथा तदपलब्धि हेतु जीव द्वारा किए जाने वाले आध्यात्मिक उपक्रमों के रूप में विस्तार से व्याख्यात हुआ है। साधना का परम साध्य मुक्तावस्था या सिद्धावस्था है। अत एव इस वाङ्मय में सिद्धत्व का विविध अपेक्षाओं से जो विस्तृत विवेचन हुआ है, वह वास्तव में प्रत्येक मुमुक्षु के लिए पठनीय है। पंचम अध्याय में इन्हीं विषयों पर समीक्षात्मक दृष्टि से बहुमुखी विश्लेषण किया जाएगा।
परम सत्य एक है, उस तक पहुँचने के विविध मार्ग हैं। विविधता के बावजूद उनमें एक ऐसी आध्यात्मिक समरसता है, जो बहिर्दृष्ट्या भिन्न दिखने पर भी परम सत्य में जाकर एकाकार हो जाती है।
जैन मनीषियों ने साधकों की विविध रुचियों का आकलन करते हुए सिद्धत्व के साक्षात्कार हेतु अनेक पथ प्रतिपादित किए हैं, जो अपनी-अपनी अपेक्षा से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं। उनमें |गुणस्थानमूलक एक ऐसा सोपान-क्रम है, जो जीव को मिथ्यात्व से पृथक् कर उत्तरोत्तर विरतिमूलक साधना में अग्रसर करता हुआ, अंतत: सिद्धत्व प्राप्त करा देता है। वह अयोगी केवली गुणस्थान के रूप में विश्रुत है, जो इस सोपान-क्रम की अंतिम मंजिल है, जहाँ पहुँचने के बाद आवागमन सदा के लिए विराम पा लेता है। यही सिद्धावस्था है।
होती है
आता। रतों से ब तक । वह परमा है। । और
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