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________________ उत्तरवर्ती जैन ग्रन्थों में सिद्ध-पद का निरूपण पंच-परमेष्ठि-स्तवन में सिद्ध-पद पंच-परमेष्ठि-स्तवन के अंतर्गत द्वितीय श्लोक में सिद्ध-पद का वर्णन है। वहाँ कहा गया है लोक के अग्रभाग में जिनका निवास है, संसार के भयों से जो मुक्त है, सर्वज्ञत्व द्वारा जिन्होंने समस्त पदार्थ-समूहों को ज्ञात कर लिया है, जो स्वाभाविक, सुस्थिर तथा विशिष्ट आत्मसुख से समृद्ध हैं, जिनका कर्म-रूप कालुष्य विनष्ट हो गया है, वे सिद्ध जयशील हैं। :- I अरिहंत भक्ति : सिद्धत्व-प्राप्ति का पथ ___ जिस प्रकार सूर्य के उदित होने से अंधकार मिट जाता हैं, कमल खिल उठते हैं, उल्लू अंधे बन जाते हैं तथा चंद्रविकसित कुमुद कुम्हला जाते हैं, उसी प्रकार अरिहंत के भक्ति रूपी सूर्य का उदय होने से अज्ञानरूपी अंधकार नष्ट हो जाता है, भक्तजनों का मन-कमल विकसित हो जाता है, पाप पंक्तिरूप उल्लूक-श्रेणी आलोकहीन बन जाती है तथा मद, मोह और अभिमान रूपी कुमुद तत्क्षण कुम्हला जाते ते जो पुरुष शुद्ध हृदय से अरिहंत देव की भक्ति करता है, उसके घर का आंगन स्वर्ग-तुल्य हो जाता है। सुख-संपत्ति सहज ही उसकी सहचरी बन जाती है। वह संसार-सागर को पार कर लेता है तथा मोक्ष-लक्ष्मी को प्राप्त कर लेता है अर्थात् सिद्ध बन जाता है। Er. सिद्धों की सिद्ध-साध्यता __जो निष्ठित अर्थात् पूर्णत: अपने स्वरूप में स्थित हैं, कृतकृत्य हैं, जिन्होंने अपने साध्य को सिद्ध कर लिया है और जिनके ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्म नष्ट हो चुके हैं, उन्हें सिद्ध कहा जाता है। यहाँ सिद्धत्व की व्याख्या में निष्ठितादि जिन चार विशेषणों का प्रयोग हुआ है, वह महत्त्वपूर्ण है। संसारी जीव शुद्ध स्वरूप में विद्यमान नहीं हैं, क्योंकि वे कार्मिक आवरणों से आवृत्त हैं। जब वे आवरण अपगत हो जाते हैं तब जीव अपने शुद्ध स्वरूप में समवस्थित हो जाते हैं। जो करने योग्य था, वह सब कृत हो जाता है, समाप्त हो जाता है, इसलिये वास्तव में कृतकृत्यावस्था पा लेते हैं। यही उनकी साधना की संपन्नता है, सिद्धत्वोपलब्धि है। १. जीव-अजीव, पृष्ठ ५०. २. पंच-परमेष्ठि-स्तवन, श्लोक-२ : नमस्कार स्वाध्याय (संस्कृत विभाग), पृष्ठ : २१८. ३. णमो सिद्धाणं, भाग-१, पृष्ठ : ५. 300
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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