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उत्तरवती जैन ग्रन्थों में सिद्ध-पद का निरूपण
र्ग में मार्ग
उसी प्रकार शब्द अनेकानेक अर्थ देने में समर्थ हैं। किंतु महाव्रती साधक के लिये तो मोक्ष से बढ़कर अभीष्ट पद है ही क्या ? अत: उसके लिए तो मोक्षपरक अर्थ की ही संगति बनती है।
लिए,
वर्ण
तथा
चक
नंतर
ही क्रम क्रम
सिद्ध विषयक एक अन्य मंत्र का प्रतिपादन करते हुए लिखा है कि यह मंत्र साक्षात् सिद्धि प्रदान करने में समर्थ है, इसका प्रतिदिन स्मरण करना चाहिए। यह समस्त विघ्नों का नाशक है। ज्येष्ठ, श्रेष्ठ या श्रेयस्कर है। वह इस प्रकार है- 'नम: सर्व सिद्धेभ्य: ।' | इसी प्रकार उपरोक्त तथा जो अन्य सारभूत मंत्र-पद हैं, उनका योगियों ने जगत् के हितकल्याण के लिए आगम वाङ्मय से उद्धार किया है। वे निर्वेद के उत्पादक हैं तथा मन के लिए शांतिकारक हैं। वे प्रज्ञाशील पुरुषों द्वारा पदस्थ-ध्यान की सिद्धि के लिये अनुचिंतनीय हैं।
उनके ध्यान से सात्त्विक जनों के राग-द्वेष, इंद्रियासक्ति तथा मोहरूप शत्रुओं का क्षय हो जाता है। समभाव, संवेग- मोक्ष की उत्कट अभिलाषा आदि गुण प्रादूर्भूत होते हैं।
दोषनाशक सारभूत पद, वर्ण, मंत्र-समूह द्वारा संवर, निर्जरा, मोक्ष और मनोजय सिद्ध होते हैं। अत: उन सबका मुनि जन को बार-बार ध्यान और चिंतन करना चाहिए। उन्हें दूसरों को बताना चाहिए। उनकी निरंतर भावना करनी चाहिए।
__ आत्मा की मुक्ति हेतु इन मंत्रों का सर्वत्र जप करते रहना चाहिए। अपने मन में उनके प्रति निश्चय करना चाहिए कि नि:संदेह ये आदि सत्य हैं तथा उन पर श्रद्धा रखनी चाहिए।
ध्यानी, वीर- आत्मपराक्रमी पुरुषों को सुख-दुख, अनेक अवस्थाओं में जप आदि के द्वारा सुन्दर पदस्थ-ध्यान को स्वायत्त करना चाहिए। स्वप्न में भी इसका त्याग नहीं करना चाहिए।
शयन, आसन और गमन आदि में भी मोक्ष-प्राप्ति का ध्येय सम्मुख रखते हुए ध्यान करते रहना चाहिए। सत्- उत्तम मंत्र के जप से मोह, इंद्रिय-राग एवं कामरूपी चोर तथा दुर्धर, कठोर कषाय सहित पाप-रूप शत्रु अत्यंत क्षीण हो जाते हैं। साधकों को इससे मनोजय, परिषह-जय, कर्मनिरोध, कर्म-निर्जरा, मोक्ष तथा आत्म-जन्य शाश्वत सुख, परम आनन्द प्राप्त होता है।
वीतराग प्रभु ने कहा है कि राग-द्वेष आदि दोषों से रहित वीतराग मुनियों को ही ध्यान-सिद्धि होती है, इसमें कोई संदेह नहीं है, ऐसा मान कर मनोविजेता साधकों को क्षमा, संतोष आदि द्वारा | कषाय और इन्द्रिय रूप सुभटों को जीत कर, राग-द्वेषादि शत्रुओं का हनन कर तथा सर्वत्र, सर्वथा समत्व को धारण कर सिद्धत्व प्राप्त करने हेतु समग्र प्रयत्न पूर्वक पदस्थ-ध्यान का विविध रूप में अभ्यास करना चाहिए।
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१. तत्त्वार्थसार दीपक, श्लोक-१४८-१५४ : नमस्कार-स्वाध्याय (संस्कृत विभाग), पृष्ठ : ९४.
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