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णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक अनुशीलन -
अनुचिन्तन
यहाँ सिद्धत्व-प्राप्ति हेतु ध्यान करने का जो संकेत रूप में दिशा-दर्शन दिया है, उसमें एक बात बहुत ही महत्त्वपूर्ण प्रतीत होती है। सामान्यत: लोग किसी एक विशेष समय में ध्यान करते हैं। फिर अपने-अपने कार्यों में लग जाते हैं। उन्होंने क्या ध्यान किया, क्या अनुचिंतन किया, उसकी कुछ भी झलक उनमें रह नहीं जाती। ध्यान की सूक्ष्म व्याप्ति जीवन में ढलनी चाहिए। उससे वृत्ति में एक ऐसा परिष्कार आता है कि उसकी आत्मा असत् या पापमय कर्म में प्रवृत्त होते रुक जाती है।
ध्यान, साधना आदि अनुबद्धता से ही सिद्ध होते हैं, यह वास्तविकता नहीं है। अत एव यहाँ ग्रंथकार ने कहा है कि उठते, बैठते, सोते, जागते, दिन में, रात में, आते, जाते, सभी समय सांसारिक कार्य करते हुए भी मन में ध्यान-जन्य आत्मानुभूति का आभास रहना चाहिए। यहाँ तक कहा है कि स्वप्न में भी ऐसी ही स्थिति रहे। यह आराधना का जीवनव्यापी रूप है। आज वैसा बहुत कम दृष्टिगोचर होता है। पूजा, उपासना, आराधना आदि सब औपचारिक तथा प्रथात्मक रूप लेते जा रहे हैं। अत एव उनकी तेजस्विता बाधित सी प्रतीत होती है। उसे पुन: उभारने की दिशा में साधक को प्रस्तुत विवेचन से प्रेरणा प्राप्त करनी चाहिए।
ॐ नम: सिद्धम् मंत्र | श्री रत्नचंद्र गणि विरचित 'मातका-प्रकरण-संदर्भ' नामक ग्रंथ में 'ॐ नम: सिद्धम' मंत्र का वर्णन आया है। अरिहंत, अज- अजन्मा- जन्म-मरण-रहित, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा मुनिइनके पाँचों आद्य अक्षर अ+अ+आ+उ+म्- मिलकर, जिसमें राजित- सुशोभित होते हैं, वह ओंकार पद है। ॐ इन पाँच अक्षरों के मेल से बना है।
“ॐ नम: सिद्धम्” इस मंत्र में तीन पद हैं। इसमें पहला पद जो एकाक्षर 'ॐ' है, वह प्रणव है तथा मंत्र का बीज है। दूसरा पद — ॐ नम:'.-- तीन अक्षर युक्त है। वह मंत्र का मूल है। तीसरा पद 'ॐ सिद्धम्' भी तीन अक्षर युक्त है, जो मंत्र की शिखा है। संपूर्ण मंत्र 'ॐ नम: सिद्धम्' है, जो पाँच अक्षर युक्त है। इस प्रकार अक्षरों के विभाग के अनुक्रम से मंत्र का चार प्रकार से जप किया जाए तो उसका अनंत फल प्राप्त होता है।
एक व्यक्ति नमस्कार करता है। दूसरा अनुशंसा, प्रशंसा या अनुमोदना करता है। नमस्कार करने वाले को चाहे फल मिले या न मिले, किन्तु अनुमोदना करने वाले को यथेष्ट फल प्राप्त होता ही है।
१. मातृका-प्रकरण-संदर्भ, श्लोक-१-३ : नमस्कार-स्वाध्याय (संस्कृत-विभाग), पृष्ठ : २४८.
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