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________________ उत्तरवर्ती जैन ग्रन्थों में सिद्ध-पद का निरूपण वली में जो जो व्यक्ति मानसिक, वाचिक एवं कायिक शुद्धि पूर्वक इस विद्या का- षड् वर्ण समुदाय का तीन सौ बार जप करता है, उसे संवर सिद्ध हो जाता है। अर्थात् कर्मों का निरोध करने की आंतरिक शक्ति जागरित होती है। साथ ही साथ उपवास का भी फल प्राप्त होता हैं। तो भी पदार्थ न्य नहीं है। संजोने का गाव-शिल्पी तुड़ा है एवं ऐसी छाप एक ऐसा विशेष जप का अर्थ है- इष्ट का नाम स्मरण। योग-सूत्र में 'तज्जपस्तदर्थ भावनम्'२- जप की यह परिभाषा की है। अर्थात् जिसका जप किया जाता है, तद्गत अर्थ का भावन या चिंतन, मनन भी साथ में रहे, तब जप सार्थक होता है। यहाँ अरिहंत-सिद्ध के नाम जप का जो निर्देश किया है, वहाँ भी यह ज्ञातव्य है कि जप करते समय उनके गुणों का अनुभावन, अनुचिंतन रहे। उपवास का फल प्राप्त होने का आध्यात्मिक तात्पर्य यह है- उप- समीप, वास- निवास अर्थात् आत्म-सानिध्य या आत्म-स्वरूप का भान और अनुभूति की भी इससे प्रेरणा मिलती है। तत्त्वार्थसार दीपक में 'चत्तारी मंगलं' से लेकर केवलिपण्णत्तं धम्मं शरणं पवज्जामि' के आधार पर एक विशिष्ट विद्या का संकेत किया है। इस विवेचन में लिखा है कि अर्हत्- अरिहंत, सिद्ध तथा सयोग केवली के अक्षरों से उत्पन्न मुक्ति रूपी प्रासाद पर शीघ्र आरोहण करने के लिए सोपान- श्रेणी सदृश पन्द्रह सुन्दर वर्णो से सुशोभित ओंकार आदि युक्त सारभूत विद्या का योगीजन गुणस्थान प्राप्ति हेतु ध्यान करें। वह विद्या- “ॐ अरिहंत, सिद्ध, सयोगी केवली स्वाहा".- के रूप में है। णमो सिद्धाणं' पद को उपलक्षित कर कहा है- समस्त कर्म-कलंक-कालुष्य के ओघ- समूह रूप अंधकार का नाश करने में सूर्य के सदृश, श्रेष्ठ, सिद्ध नमस्कार से उत्पन्न साक्षात् शिव- कल्याणप्रद तथा सर्व विघ्न विनाशक, ऐसे पंचवर्णमय मंत्र का लक्ष्य- मोक्ष प्राप्ति हेतु सुयोग्य जन सदा स्मरण करें, जप करें। वह मंत्र है- “णमो सिद्धाणं"।" ___पंच पदों के आद्य वर्णों- अक्षरों से विरचित मंत्र के संदर्भ में तत्त्वार्थ-सार के रचयिता लिखते हैं कि संजयंत आदि योगिवर्यों ने विद्या-प्रवाद-पूर्व में भक्ति और मुक्ति के निधान-स्वरूप इस सिद्ध-चक्र का अनेक प्रकार से उद्धार किया है, जो समस्त विघ्नों का नाश करने वाला हैं। गुरुजन के उपदेश से उनके प्रयोजक, शास्त्र के ज्ञान को अवगत कर प्रज्ञाशील पुरुष मुक्ति हेतु उनका ध्यान करें। का सर्वस्व न में एक में उसका घ-दृष्टि *प्रकरण तत्त्वभूत १. तत्त्वार्थसार दीपक, श्लोक-९०,९१ : नमस्कार-स्वाध्याय (संस्कृत-विभाग), पृष्ठ : ८४. २. योग-सूत्र, अध्याय-१, समाधिपाद, सूत्र-२८. ३. तत्त्वार्थसार दीपक, श्लोक-१०३,१०४ : नमस्कार-स्वाध्याय (संस्कृत-विभाग), पृष्ठ : ८५,८६. तत्त्वार्थसार दीपक, श्लोक-१०७,१०८ : नमस्कार-स्वाध्याय (संस्कृत विभाग), पृष्ठ : ८७. 290
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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