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पामोसिद्धाण पद समीक्षात्मक अनशीलन
आचार्य शुभचंद्र ने उपर्युक्त रुप में सिद्ध भगवान् की विशेषताओं का सुंदर, सरस पदावली में जो विवेचन किया है, वह बड़ा हृदयस्पर्शी है। | सिद्धत्व वह पद है, जो शब्दों का विषय नहीं है। शब्दों की अपनी सीमाएं हैं। वे किसी भी पदार्थ
का अपनी सीमाओं के अंतर्गत ही विश्लेषण कर सकते हैं। उससे आगे बढ़ना उन द्वारा शक्य नहीं है। ग्रंथकार ने शब्दों की सीमाओं के अंतर्गत उन निर्मल, उज्ज्वल, अवदात (शुद्ध) भावों को संजोने का | बड़ा ही स्तुत्य प्रयास किया है, जिनका सिद्धत्व की महिमा से संबंध है।
इस वर्णन से ग्रंथकार की दो विशेषताएँ स्पष्टतया दृष्टिगोचर होती है, वे बहुत बड़े भाव-शिल्पी होने के साथ-साथ शब्द शिल्पी भी थे। भावशिल्प शब्द-साधना और आत्मानुभूति से जुड़ा है एवं शब्द-शिल्प, वैदृष्य एवं कवित्व-संलग्न होता है।
सुंदर, समीचीन और प्रेरक शब्दावली द्वारा निरुपित तत्व पाठकों और श्रोताओं पर ऐसी छाप छोड़ता है, जो तत्काल मिट नहीं पाती। यदि उस छाप को संभाला जाए तो वह हृदय में एक ऐसा परिवर्तन ला सकती है, जिससे जीवन की दिशा ही बदल जाती है।
आचार्य हरिभद्र के शब्दों में साधक ओघ-दृष्टि को लांघकर योग-दृष्टि में आ जाता है।
संसार के प्रवाह में, लौकिक विषयों में, एषणाओं में तन्मय होकर उन्हीं को जीवन का सर्वस्व मानकर उनके प्रवाह में बहते रहना ओघ-दृष्टि है।
___ अंत:करण में जहाँ बोध की एक हलकी सी रेखा आविर्भूत होती है तब मानव के जीवन में एक | परिवर्तन आता है, एक स्फुरणा उत्पन्न होती है कि जिस प्रवाह में वह बह रहा है, उसमें उसका कल्याण नहीं है। वह सत्य के मार्ग की ओर कुछ-कुछ संवेदनशील बनता है। वैसा होना ओघ-दृष्टि से योग-दृष्टि में आना है।
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तत्त्वार्थसार दीपक में सिद्ध-विवेचन । भट्टारक श्री सकलकीर्ति ने 'तत्त्वार्थसार दीपक' नामक ग्रंथ की रचना की। उसमें भावना प्रकरण के अंतर्गत अर्हत्-सिद्ध संज्ञक षडात्मक विद्या का संकेत किया है। उन्होंने लिखा है___ अरिहंत और सिद्ध के सुन्दर नामों से समुत्पन्न षडक्षरात्मक यह विद्या (अरिहंत-सिद्ध) तत्त्वभूत है- संसार में सार रूप है। ध्यानी पुरुष सदा उसका जप करें।
१. योगदृष्टि समुच्चय, श्लोक-१४,१५ : जैन योग ग्रन्थ-चतुष्टय, पृष्ठ : ४,५.
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